Wednesday 25 May 2022

करी और मसाज से अलग थाई देश

कुछ दिन पहले थाईलैंड के प्रवास पर जाना हुआ। प्रयोजन था थाईलैंड के तीसरे सबसे बड़े और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय महाचोल्लानकोन विश्वविद्यालय के साथ चांगमई में स्थित लाना पांडुलिपियों के डिजिटाइजेशन का अनुबंध। यह विश्वविद्यालय सत्तर वर्ष पुराना है और आज यहां लगभग दस हजार बौद्ध भिक्षु शिक्षा प्राप्त करते हैं। उनके अलावा अन्य विद्यार्थी भी यहां हैं जिनकी संख्या ढाई हजार के आसपास होगी।

थाईलैंड का नाम सुनते ही जो छवि हमारे दिलो दिमाग में उभरती है वह दरअसल थाईलैंड है ही नहीं।थाई करी ,थाई मसाज और थाई समुद्र तट के इतर भी थाईलैंड है जो शायद ज्यादा मोहक और अपना सा है। थाई संस्कृति और वहां के जीवन को जानने के लिए सैलानी का चश्मा उतार कर शोधक या विद्यार्थी का चश्मा पहनना ज्यादा बेहतर होगा। थाईलैंड के बारे में धारणा इतनी गलत बन गई है (जिसका बहुत सारा श्रेय हमारे भाई बंदों का ही है ) कि किसी को भी बताओ कि मैं थाईलैंड जा रहा हूं तो स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है " वाह गुरु तुम्हारे तो मजे हैं " या फिर " जाओ भाई ऐश करो " ।

माना कि थाईलैंड एक बेहतर और अधिकांश की जेब के लिए मुफीद पर्यटक स्थल है लेकिन एक देश और एक परंपरा के रूप में जानना ज्यादा प्रेरक और रोचक है। तीन साल पहले जब हम पहली बार वहां गए थे तो हमने अयोध्या सहित अन्य स्थानों के कुछ मंदिर देखे थे । तब चांगमाईं जाना नही हो पाया था।

लाना पांडुलिपिया सात सौ साल पुरानी हैं जिनमे लाना डायनेस्टी का और उसके भारत के साथ संबंध का लंबा इतिहास है। अब लाना लिपि पढ़ने वाले लोग ही बहुत कम रह गए हैं। लाना क्षेत्र उत्तरी थाईलैंड का हिस्सा है जहां 1200 साल लाना शासन रहा है। चांगमाई यहां की राजधानी रही है जो बैंकॉक से साढ़े तीन सौ किलोमीटर दूर हैं। कुछ समय पूरे थाईलैंड पर इनका शासन था और राजधानी भी अयोध्या के स्थान पर चंगमई ही थी।

चंगमाई उत्तरी थाईलैंड का पर्वतीय क्षेत्र है जिसकी अधिकतम ऊंचाई साढ़े पांच हजार फीट है। चांगमई की एक और विशेषता ये हैं कि यह भगवान बुद्ध के रिलिक्स दो हिस्सो में आए हैं। एक हिस्सा महा चोला लॉनकोन विश्वविद्यालय के चांगमाइ कैंपस में है और दूसरा वाट डोई सुथेप के नाम से प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि तत्कालीन राजा ने एक सफेद हाथी पर रिलिक रख कर उसे चलने की प्रार्थना की ताकि वह हाथी रिलीक्स के लिए सुरक्षित स्थान ढूंढ सके। वह हाथी साढ़े तीन हजार फीट ऊपर इस पर्वत पर आया और उसने वहां प्राण त्याग दिए । वे रिलिक्स इसी पर्वत पर सुरक्षित हैं। वही उस हाथी की भी प्रतिमा लगाई गई है। प्रति वर्ष हजारों श्रद्धालु इनके दर्शन करने यहां आते हैं।

चांगमाई में ही कुछ बौद्ध मठों में ये पांडुलिपियां सात सौ वर्षो से सुरक्षित रखी है। कुछ लकड़ी के बक्से भी लगभग उसी समय के हैं। इन पांडुलिपियों को दुश्मनों और कीड़ों विशेषकर दीमक से बचाने के लिए इन्हे पानी के बीच में कमरा बना कर उनमे रखा जाता था। अपनी परंपरा और संस्कृति को बचा कर रखने की यह जद्दोजहद अनुकरणीय है।

विश्वविद्यालय का मुख्य परिसर बैंकॉक से चालीस किलोमीटर दूर वॉट सुन डॉक नामक स्थान पर है। जिस दिन हम अनुबंध के लिए जाना था उस दिन एक बहुत रोचक घटना हुई। घटना छोटी है लेकिन उसके कई आयाम हैं।

हम पहले दिन बैंकॉक पहुंचे और नियमानुसार क्वारेन टीन में रहे। दूसरे दिन हमे विश्वविद्यालय जाना था। तय यह था कि चंगमाइ से जो गाड़ी रात में विश्वविद्यालय आएगी वही सुबह हमे बैंकॉक से लेगी। रात को गाड़ी खराब हो गई तो वहां के प्रभारी भिक्षु जो वाइस रेक्टर थे का हमारे साथी प्रो अमरजीव लोचन जी को रात ही फोन आया कि आप सुबह आने के टैक्सी की व्यवस्था कर लें ,हम आपको टैक्सी का भुगतान करेंगे। लोचन जी रात में मशक्कत करते रहे लेकिन उन्हें कोई टैक्सी नही मिली। एक तो रविवार ऊपर से कोरोना से अभी शहर जागा नही था। हार कर लोचन जी ने अपने मित्र अशोक जी को फोन किया जो बैंकॉक में नौकरी करते हैं। उनके पास भी कार नही थी। लेकिन उन्होंने अपने एक स्थानीय व्यवसाई मित्र राज वासनिक को राजी किया कि वे अपनी कार से हमे ले चलें। यह सारा घटना क्रम हुआ जिसमे अमरजीव जी को सोने में बारह बज गए। मुझे तो इस पूरी घटना का पता तब चला जब सुबह मेरा परिचय राज वासनिक जी से कराया गया। अशोक जी से तो मेरा परिचय पहले से था।

हम रास्ते में बात करते रहे जिसमे मालूम पड़ा कि मूलतः भारतीय राज अब थाई नागरिक है और उन्होंने थाई लड़की से विवाह किया है। उन्होंने प्रारंभ में छोटा व्यवसाय किया था साबुन एक्सपोर्ट करने का लेकिन अब उनका बहुत अच्छा व्यवसाय है। उन्होंने कई सौ करोड़ का व्यवसाय कहा शायद तीन सौ या चार सौ करोड़।
लेकिन अपने बड़प्पन का जरा भी इजहार किए बिना वे हमारे साथ थे ।

जब हमारा कार्यक्रम समाप्त हुआ तो कार्यक्रम के प्रभारी भिक्षु आए और उन्होंने राज जी को चुपचाप एक लिफाफा दिया। राज जी हक्का बक्का रह गए। उन्होंने तो क्या हमने भी इस बात की अपेक्षा नहीं की थी। राज जी ने उसे लौटना चाहा तो श्री थारा डोल जो सेवा निवृत थाई विदेश सेवा अधिकारी थे ने राज जी को थाई भाषा में समझाया इसे ले लो ये भगवान का आशीर्वाद है। थारा डोल भारत में 15 वर्ष तक दूतावास में थे और भारत से प्रेम की खातिर वे विशेष रूप से हमसे मिलने आए थे। उनकी बात राज जी की समझ में आई और उन्होंने वह लिफाफा रख लिया। हम आश्चर्य में थे कि भिक्षु जी ने याद रखा था कि हमे लाने ले जाने की व्यवस्था उन्हे करनी है ।इसलिए बावजूद इस कष्ट के कि वे स्वयं तमाम तकलीफे उठा कर सुबह पहुंचे थे वे हमारी चिंता में थे। वे जानते थे कि राज जी स्वयं की कार से हमे लाएं है फिर भी वे अपना कर्तव्य पूरा करना चाहते थे।

मुझे राज जी का भाव देखकर भी अच्छा लगा कि करोड़पति होते हुए भी उन्होंने भिक्षु जी की इच्छा का मान रखा और उस लिफाफे को माथे पर लगा कर जेब में रखा। परस्पर समर्पण और श्रद्धा का ऐसा अनूठा उदाहरण देख हम सब की आंखे द्रवित थी। थाईलैंड के लोगो का यह परस्पर भाव ही है जो अजनबी को भी बांध लेता है। इसलिए कहते हैं कि जो यहां ज्यादा दिन रह जाता है यहीं का होकर रह जाता है। (IGNCA के सदस्य सचिव डॉ सचिदानन्द जोशी के फेसबुक पेज से साभार)

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