Tuesday 1 October 2019

पत्रकारिता में चुनौतियाँ और जोख़िम

अमन वर्मा
दिल्ली स्कूल ऑफ जर्नलिज्म के साप्ताहिक कार्यशाला में दैनिक समाचारपत्र अमर उजाला के रेसिडेंट एडिटर, श्री संजय देव ने छात्रों को संपादकीय कला एवं हिंदी पत्रकारिता के आयाम के बारे में अपने अनुभव साझा किया। उन्होने कहा कि भारत में अखबार का इतिहास करीब 200 वर्ष पुराना है, पहले अखबार विचारों से प्रेरित होकर छपते थे। जो जनता की ज़रूरतों को समझते थे। आज़ादी के काल में पत्रकरिता जन-मानस से संचार का महत्वपूर्ण ज़रिया था। आज की तरह ये कोई व्यवसाय नही था। अखबार के विस्तार में क्षेत्रीय भाषाओं ने एक महत्वपुर्ण भूमिका निभाई है। मीडिया के दो हिस्से पर बात करते हुए राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय मीडिया की बात कही। उन्होंने ने कहा कि एक ओर जहाँ राष्ट्रीय मीडिया के पास धन और संसाधन है, वही विविध प्रकृति एवं स्थानीय समाचार क्षेत्रीय मीडिया की ताकत बनी। जहाँ अंग्रेज़ी अखबारों ने समय के साथ उन्नति की एवं अपनी भाषा को लगातार उत्कृष्ट बनाने में लगे रहे वहीं हिंदी अखबारों में लगातार भाषा का स्तर गिरता गया। और इस असमानता को हिंदी अखबार कभी भर न सके।

संजय देव ने एड्स जागरूकता एवं तीसरे लिंग के लाभ के लिए बहुत काम किया है। इस अभियान के बारे में उन्होंने  खुल कर अपना अनुभव साझा किया। उन्होंने बताया कि पत्रकार जो प्रगतिशील प्रकृति के होते हैं वो भी इस मुद्दे पर बात करने से हिचकते हैं। वो भी समाज से निकल कर आते हैं तो बाकियों की तरह वो भी पूर्वधारणा से घिरे होते हैं। अपने अनुभव के बारे में आगे बताते हुए उन्होंने कोलकाता में सोनगाछी मंदिर का उदाहरण दिया; जहां मंदिर के प्रांगण में सेक्स कर्मियों को प्रशिक्षित किया जाता था। वहाँ उनकी मुलाकात एक महिला से हुई जिसमें उसने तस्लीमा नसरीन की टिप्पड़ियों पे आपत्ति जताई, उसने कहा कि उनके लिखने का तरीका सही नही है, मैं यहाँ रहती हूँ, और यहां के हालातों के बारे में उनसे अच्छा लिख सकती हूँ।

छात्र सौम्य कुमार ने सवाल पूछा कि इतने प्रगतिशील होने के बावजूद आज भी क्यों लोग समलैंगिकता और ट्रांसजेंडर पर छींटा-कसी करते हैं? इसके जवाब में उन्होने कहा कि समाज की मान्यता और उस मान्यता के तथ्यों के बीच में बहुत ज़्यादा अंतर होता है, जिसको सिर्फ समय ही भर सकता है। बताया कि समलैंगिकता और ट्रांसजेंडर कोई अप्राकृतिक शब्द नहीं हैं, क्योंकि हर काल में ऐसे 10 प्रतिशत लोग रहे हैं  और यह प्रतिशत काफी है। इसे प्राकृतिक बताने के लिए उन्होंने कहा कि ये पत्रकारों की ज़िम्मेदारी है कि समाज को अपने तथ्यों से प्रभावित करें। इसके बाद एस. देव ने एक पत्रकार के गुणवत्ता को बताते हुए कहा कि एक पत्रकार का अच्छा प्रेक्षक होना बहुत ज़रूरी है। निष्पक्षता के साथ समाज में पत्रकारिता करनी चाहिए।संवेदनशील मुद्दों पर समझदारी के साथ काम करना चाहिए। समय के साथ अपने विवेक को तराशते रहना चाहिए।

एक और छात्र मुकुल शर्मा ने अपने सवाल में कहा की कैसे एक अच्छा प्रेक्षक बना जाए? जिसके जवाब में एस. देव ने कहा कि एक बेहतर पत्रकार बनने के लिये आपको हमेशा खुद को मानसिक रूप से  विकसित करते रहना चाहिए, साथ ही हर मुद्दे पर गहन विश्लेषण करना चाहिए, सिर्फ खबरों को पढ़ने से कुछ नहीं होगा। उन खबरों पर अपनी खुद की सोच विकसित करने की ज़रूरत है। किसी एक विषय पर अच्छी पकड़ बनाना बहुत ज़रूरी है।

तीसरा सवाल छात्रा जानवी खेतान ने किया कि आज के वक़्त में कितनी निष्पक्ष पत्रकारिता हो रही है? इस पर उन्होने कहा कि एक पत्रकार कभी नेचुरल नहीं माना जाएगा। यह उसका मुकुट भी है और त्रासदी भी। चौथा सवाल छात्र सुयश कुमार ने अंग्रेज़ी अखबारों की तुलना में हिंदी अखबारों के गिरते हुए स्तर पर सवाल उठाया? इस सवाल के जबाब में उन्होने प्रभात खबर और नव भारत टाइम्स जैसे अखबारों का उदाहरण दिया और बताया कि कैसे अपने विशेषज्ञों के साथ अलग-अलग क्षेत्रों में काम किया। साथ ही अंग्रेज़ी अखबारों से तुलना करते हुए बताया कि अंग्रेज़ी में विशेषज्ञों को जिस तरीके से प्रोत्साहन मिलता है उससे हिंदी सर्किट के पत्रकार वंचित हैं। लगातार हिंदी के गिरते हुए स्तर का एक महत्वपूर्ण कारण समाज से कटे रहना है 

आखिरी सवाल प्रियम ने पूछा की वरिष्ठ पत्रकार होने के नाते उन्हें कौन कौन सी चुनौतियाँ आदर्श पत्रकारिता की राह में आती हैं? इसके जवाब में  देव  ने 'पेड न्यूज़' का ज़िक्र करते हुए बताया कि कैसे चुनाव के वक़्त समाचार-पत्र की भाषा एवं उसके लिखने के लहजे पर सवाल उठते हैं।  कैसे पेड न्यूज को विविधता के साथ पेश किया जाता था, है और रहेगा। उन्होंने अपने साथ हुए एक अनुभव को भी साझा कियाजब चुनाव के वक़्त उनकी टीम के समीकरण में एक राजनीतिक दल की हार दिख रही थी, मगर उसे छपने में ये डर था कि अगर नतीजा विपरीत आया तो वह उनसे सीधी दुश्मनी मोल ले लेंगे। सारी बातों को दरकिनार कर के उन्होंने उस रिपोर्ट को छापा और उस चुनाव का नतीजा बिलकुल उनकी समीक्षा के अनुरूप आया था। इस अनुभव से उन्होंने बताया कि अगर एक पत्रकार को आगे बढ़ना है तो ऐसे जोखीम उठाने ही होंगे 'या तो लड़ जाओ या बैठ जाओ'

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