Wednesday 23 March 2022

बेरंग दीवारों से झांकते चमकीले रंग


तंजावूर का नाम आते ही तंजावूर पेंटिंग्स का नाम बरबस ही आ जाता है । जिस घर में एक शानदार तंजावूर पेंटिंग हो उस घर की शान का अंदाज आपको अलग से पता चल जाता है । हालांकि ये भी सच है कि इसकी कद्र उन्ही को होती है जो इसकी कीमत और महत्व जानते हैं । एक बार चेन्नई में किसी समारोह में भेट में मिली थी जिसने हमारे बैठक कक्ष की शोभा बढ़ा दी । ये बात अलग है कि फिर उसके सामने हमारे कुशन कवर और पर्दे फीके लगने लगे और हम उन्हे बदलने के लिए अतिरिक्त खर्च करना पड़ा ।

तंजावूर में आप जगह जगह पेंटिंग्स के एंपोरियम देख सकते हैं। मन हुआ कि इनमे से किसी के अंदर घुस कर पेंटिंग्स का आनंद लिया जाए। लेकिन हमारे स्थानीय गाइड के मन में कुछ और ही था। कहने लगा आपको खास जगह ले चलता हूं।
जब हम उस तथाकथित खास जगह रुके तो अच्छी खासी निराशा हुई। एक बेहद पुरानी , रंग उड़ी जर्जर इमारत के सामने हम खड़े थे। अंदर जाने का गलियारा भी अंधकार भरा था। एक बार को तो लगा कि किसी गलत जगह आ गए है। तभी एक अंधेरी खोह से एक सज्जन निकले और उन्होंने हमारा स्वागत किया ।
"आइए । मैं हूं संभाजी राजे भोसले । रॉयल स्कूल ऑफ पेंटिंग्स की परंपरा को मैं ही आगे बढ़ा रहा हूं। "
उनकी वेशभूषा और मुखमुद्रा उनके नाम से मेल नहीं खा रही थी। फिर भी मैंने संकोचवश पूछ लिया " आप भी क्या तंजावूर महाराजा के खानदान से हैं। " उन्होंने कहा " जी मैं उनके ही खानदान से हूं उनका चचेरा भाई। दर असल हमारे ही परिवार के पूर्वजों ने तंजावूर पेंटिंग्स का स्कूल रॉयल स्कूल प्रारंभ किया था। उस समय तो बड़े बड़े लोग आते थे सीखने और पेंटिंग्स बनाने। अब कई एंपोरियम खुल गए है। वे सही तकनीक का इस्तेमाल किए बगैर अब शॉर्ट कट में सस्ती पेंटिंग्स बनाने लगे हैं। लेकिन हम लोग अभी भी उसी पुरानी परंपरा से पेंटिंग्स बनाते हैं। "
उनकी बात सुनकर तंजावूर पेंटिंग्स के बारे में पढ़ा इतिहास सजीव हो उठा। विजयनगर साम्राज्य के तंजावूर में पतन के बाद नायकों का शासन आया। यह 16 वी शताब्दी की बात रही होगी । उस समय देश के अलग अलग कोनो से कलाकारों ने आकर इस अति विशिष्ट शैली का विकास किया । लकड़ी के ऊपर कैनवास लगा कर। फिर उसपर आकृति उकेरी जाती हैं । फिर उसे चूने से आकर देकर उस पर गोंद से जड़ाऊ काम किया जाता है। फिर चमकीले गहरे रंगों से उसे सजाया जाता हैं। और अंत में उस पर सोने का पत्रा मढ़ा जाता है।
इस प्रकार की पेंटिंग्स में प्रायः देवी देवताओं की ही प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। स्थल पुराण या पद्म पुराण के प्रसंग रचे जाते हैं। बाद के काल में इस पर सूफी संत और अन्य धर्मों के आराध्यों की भी प्रतिमाएं उकेरी जाने लगी। एक पेंटिंग को पूरा करने में आकार के आधार पर दस से पंद्रह दिन तक लग जाते हैं। इसकी सामग्री बहुत महंगी होती है तो जाहिर है पेंटिंग भी महंगी ही होगी।
आप किसी भी परंपरावादी दक्षिणी परिवार में जाए तो अन्य चीजों के साथ वे आपको बड़े गर्व से तंजावूर पेंटिंग भी दिखाएंगे जो उनके घर में 150 या 200 साल से रखी है। उसके साथ वे ये भी बताने से नही चूकेंगे कि इन सालो में एक ये जैसी की तैसी ही है।
नायकों के बाद मराठों का राज्य आया । सर्फोजी राजे भोसले द्वितीय अद्भुत कला प्रेमी शासक थे और उन्होंने तंजावूर में विभिन्न कलाओ का विकास और संवर्धन किया । आज तंजावूर पेंटिंग के विकास और संवर्धन का श्रेय सरफोजी राजे के शासन को दिया जा सकता है। उनका शासन काल 1775 के आसपास का था।
जिस भवन में हम घुसे थे ऐसा लगा कि सरफोजी राजे का काल वही थमा था। एक से एक नायब और पुरानी चीज वहां थी। घड़ी, पियानो , तलवारे , पुरानी मूर्तियां और हां संभाजी स्वयं भी। सभी कुछ ऐसा कि आपको लगे कि वे सारी चीजे काल की गर्त में समानांतर चल रही है । संभाजी ने बताया कि उनके यहां सबसे ज्यादा प्रमाणिक पेंटिंग्स है।हो सकता है कि ऐसा हर कलाकार कहता हो।
लेकिन उस अंधेरे से जब उन्होंने अपना अमूल्य खजाना उद्घाटित किया तो हम सब की आंखे फटी की फटी रह गई। कला के लालित्य और उदात्तता का अद्भुत दर्शन था। लक्ष्मी जी हो, गणेश जी हो , कुबेर को , या विष्णु जी हो एक एक आकृति में मानो देव स्वयं उतर आए हों।
" आपको कौन सी पसंद है। आपको कौन से दूं। " संभाजी ने पूछा तो तंद्रा भंग हुई। मन तो हुआ कहूं " सारी की सारी दे दीजिए। " लेकिन फिर ध्यान आया इतनी सारी तंजावूर पेंटिंग लगाने के लिए फिर राजमहल जैसा घर भी तो चाहिए।
" एक तो आपको लेनी ही चाहिए । वैसे मैं आपको एक अलग से बंबई स्कूल पेंटिंग्स में से एक तो भेट करने वाला हूं। आप इन तंजावूर स्टाइल में से एक पसंद करें। " आकर , रंग , देवता और पेंटिंग की कीमत इन चार ध्रुवों को जोडकर एक पेंटिंग को तय किया। संभाजी के चेहरे पर आश्चर्य था " अरे ये तो बहुत छोटी है। " कैसे बताता कि मेरी जेब के लिए वही भारी थी।पेंटिंग के आकार के अनुपात में संभाजी का आतिथ्य कम नहीं हुआ । वे उतने ही उत्साह से अपना पूरा वर्कशॉप दिखाते रहे और समझाते रहे। हम सभी उनके साथ सरफोजी राजे के काल में पहुंच गए थे और अपने आप को रॉयल स्कूल का विद्यार्थी मानने लगे थे। उस भवन के बाहर समय 2022 सन में था लेकिन भवन के अंदर समय 1775 ईसवी में ही थमा था और वहीं थमे रहना चाहता था ।
(डॉ सचिदानंद जोशी के फेसबुक वाल से साभार)

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