तंजावूर जा रहा था । एक कार्यक्रम था । तंजावूर की पहली यात्रा थी इसलिए मन में उत्साह बहुत था। मालविका जी से भी पूछा चलने के लिए । उत्साह तो उनके मन में भी था लेकिन घर के काम बहुत थे इसलिए उन्होंने मुझे अकेले जाने की इजाजत दे दी। साथ में एक फरमाइश कर दी वो भी बड़े लुभावने अंदाज में । कहा " देखो तुम्हारा किराया तो तुम्हारी संस्था देगी। मेरा किराया तुम्हे देना पड़ता । मैं नहीं जा रही हूं यानी तुम्हारा खर्चा बचा रही हूं , तो उसके बदले तुम मेरे लिए एक कांजीवरम साड़ी ले आना । " कांजीवरम साड़ी के बारे में सुना था कि महंगी होती हैं लेकिन किराए के एवज में साड़ी तो शायद कुछ उल्टा ही गणित है ऐसा मैंने सोचा । क्योंकि मालविका को साथ चलने का ऑफर देने से पहले किराए की गणना मैने की थी । आने जाने का मिला कर दिल्ली से , चेन्नई , और फिर त्रिचि का किराया 25000 बैठ रहा था। मालविका को साथ चलने का आग्रह भी आधे मन से ही किया था कि वो मना कर दे तो अच्छा ही है। अब किराए के बदले साड़ी भी कोई महंगा सौदा नहीं था ।
अपने काम में से जब समय मिला तो साड़ी की याद आई। साड़ी का नाम सुनकर मेरे सहयोगी अभिजीत और अरूपा भी तैयार हो गए। उन्होंने इस विषय में पहले दिन काफी रिसर्च की थी तो सोचा उनके अनुभव का लाभ मिलेगा ।
जब उन्होंने कहा कि सर हम आपको सीधे विवर के पास ले चलते हैं तब भी नही लगा कि मैं एक अलग ही दुनिया में जा रहा हूं। मन में बस इतना लालच था कि सीधे बुनकर से खरीदने में थोड़ा और सस्ता मिल जाएगा ।
तंजावूर के महारनुम्बुज वाडी नाम के मोहल्ले में गए तो लगा जैसे हम किसी और ही प्रांत में हैं। हमारे दोनो उत्साही गाइड एक पारंपरिक से दिखने वाले घर के सामने रुके और मुझे अंदर चलने को कहा। एक साधारण घर जैसा होता है वह घर ऐसा ही था। ना कोई साड़ी ना कोई बुनकर। लेकिन वो पिता पुत्र ऐसे मिले जैसे हम उनके वर्षो के परिचित हों।
फिर पिता जी ने अपनी भाषा में हमे कुछ बताया जिसका अनुवाद पुत्र ने किया। वह कुछ इस प्रकार था । " हम पिछली सात पीढ़ी से यह काम कर रहे हैं। मेरा नाम राज रत्नम और मेरे बेटे का नाम विजय है। जो काम हमारी साड़ियों में होता है वह विशेष प्रकार का है जिसे कोरवाई कांजीवरम कहते हैं। यह काम कठिन होता है क्योंकि इसमें पल्लू और बॉर्डर अलग बनती है और बाकी साड़ी अलग। फिर दोनो को बहुत सफाई से जोड़ा जाता है। उसमे लूम पर दो लोगो की आवश्यकता होती है और इसके धागे भी अलग तरह से लिए जाते हैं। "
उसके बाद राज रत्नम जी ने अपने पूर्वजों के फोटो और वंश वृक्ष दिखाया। साथ ही उन्होंने 75 साल पुराना जाल दिखाया जिससे उनके पुरखे साड़ी बनाते थे। उनके पुत्र विजय ने फुर्ती से अंदर जाकर धागों की गठरी भी उठा लाई जिसमे तरह तरह के रंग बिरंगे सिल्क के धागे थे। " ये धागे हम बैंगलोर से ही मंगवाते हैं । " पिता पुत्र इतने रोचक ढंग से बता रहे थे ये सारी बातें कि उन्हें बीच में रोकने टोकने का मन ही नही हो रहा था । फिर विजय ने बताया कि कुछ साल पहले ऐसा लगा कि अब यह बंद करना पड़ेगा क्योंकि उनके काम में नवीनता नहीं आ रही थी । तब उन्हे चेन्नई की डिजाइनर सबिता राधाकृष्णन जी का साथ मिला और उनके काम में नई ऊर्जा आ गई।
" अब कोरवई कांजीवरम में जो डिजाइन हम बनाते हैं वो और कोई नही बनाता।"
अब साड़ियों को देखने उत्सुकता चरम पर पहुंच गई थी।मुझे लगा कि विजय अब हम कही अंदर ले जायेंगे जहां कोई गो डाउन होगा। लेकिन विजय अंदर गए और गिनती की दस साड़ियां लेकर आए । वे दसों अलग डिजाइन की थी और सभी एक से बढ़कर एक लुभावनी। सबकी बनावट में कोई विशेषता थी। एक साड़ी जो मुझे बहुत पसंद आ रही थी मैंने उठाई । राज रत्नम जी उसे पूरा खोला तो लगा इंद्रधनुष छा गया हो।
"महंगी होगी। " मैंने जिज्ञासा प्रकट की।
" Not much " विजय ने मुस्कुराते हुए कहा। लेकिन जो आंकड़ा उसने बताया इतने में मैं मालविका को दो बार तंजावूर ले जा सकता था। मैंने डर के मारे वह साड़ी नीचे रख दी और सोचने लगा कि मैं तो खुद को होशियार समझ रहा था एक साड़ी का वादा करके और ये कहां की कठिन घड़ी आन पड़ी।
विजय और उसके पिता जी ने अलग अलग साड़ियां खोल कर सतरंगी संसार रच दिया था। ये लूं या वो लूं वाली स्थिति थी। कोई मंदिर के शिल्प से मेल खाती थी तो कोई हाथी या मोर की बॉर्डर वाली थी। एक साड़ी उन्होंने ऐसे भी बताई जिसे उन्होंने एम एस सुब्बलक्ष्मी जी का नाम दिया। सब कुछ बहुत सुंदर और यूनिक था।
एक बात जो मैं बड़ी देर से गौर कर रहा था वह अंततः पूछ ही ली।
" आप पिता पुत्र जब आपस में बात करते हैं तो तमिल तो नही बोलते । वह कौन से भाषा है। "मैंने विजय से पूछा। जो विजय ने कहा वह चौकाने वाला था। " हम सौराष्ट्री भाषा बोलते हैं। हमारा परिवार 400 साल पहले सौराष्ट्र से आया। ये पूरा मोहल्ला ही सौराष्ट्री लोगो का है। यहां ये लोग 800 साल पहले आ गए थे।
फिर हमने एक साड़ी पसंद की को हमारे बजट में थी। वह साड़ी राज रत्नम जी ने परंपरागत ढंग से मंत्रोच्चार करके दी।
फिर हमने विजय से आग्रह किया कि वो हमे अपनी लूम दिखाए जिसके लिए वह सहर्ष तैयार हो गया।
पास ही एक मकान में उन्होंने 30 लूम लगाई थी जिस पर 60से 80 के बीच कारीगर काम करते हैं। एक साड़ी बनाने में आठ दिन लगते हैं क्योंकि सारा काम हाथ से होता है। डिजाइन का ग्राफ लूम पर चढ़ाया जाता है जिसमे से धागा निकलता है। बॉर्डर और पल्लू का काम अलग से किया जाता है। साड़ी की कीमत वजन से तय होती है। एक अच्छी महंगी साड़ी का वजन डेढ़ किलो तक भी हो सकता है। विजय ने यह भी बताया कि ये कारीगर भी सौराष्ट्र के की है और पीढ़ियों से यहां हैं। विजय ने अपने अनुभव से लूम के डिजाइन में कुछ परिवर्तन किया है जिससे अब एक ही व्यक्ति लूम चला सकता है।
पहले ये थोक के रेट से साड़ियां दुकानदारों को देते थे। लेकिन जब ऐसा लगा कि दुकानदार ज्यादा मुनाफे के चक्कर में इनसे थोड़ा निम्न स्तर का धागा लगाने के लिए कह रहे हैं तो इन्होंने खुद ही रिटेलिंग शुरू किया ।पिता बोले अपने धागे से हम कैसे बेईमानी कर सकते हैं। ये धागा तो हमारी पूजा है। अब तो ये online भी साड़ियां बेचते है। दुकान में ये साड़ियां निश्चित ही 40% ज्यादा दामों पर मिलेगी।
साड़ियों की दुनिया में और धागों के ताने बाने में ऐसे उलझे की समय का पता ही नही चला।
चलते चलते मैंने राज रत्नम जी से पूछ लिया " आप साड़ियां ही बनाते हैं , पुरुषो के लिए कुछ नहीं बनाते " । उन्होंने मुस्कुराकर नकारात्मक सिर हिलाया।
घर पहुंच कर मालविका की उत्सुकता को ज्यादा देर न खींच कर उन्हे साड़ी का पैकेट थमा दिया। उनके चेहरे पर प्रसन्नता का जो भाव देखा तो लगा सारा श्रम सार्थक हो गया।
जब उन्होंने साड़ी को मन भर कर देख लिया तो अपेक्षित सवाल दागा । यह वह सवाल है जो दुनिया के अधिकांश पतियों को पटखनी देता है "कितने की है " । आप कम बोलो तो उन्हे लगेगा सस्ती उठा लाए , ज्यादा बोलो तो कहेंगी "आप ठगा गए "
मालविका ने फिर अपना सवाल दोहराया "कितने की है" ।
" एक प्यार से लाई साड़ी की कीमत तुम क्या जानो सुधीर बाबू "मैने कहा और जान छुड़ा ली।
(डॉ सचिदानंद जोशी के फेसबुक वाल से साभार)
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