Tuesday, 21 October 2014

कविता


                                                                  शिवांजली पाण्डेय....
नव प्रार्थना

तन पर कोमल जल अर्पण कर,
घिस चन्दन, मस्तक पर भरकर
मंद-मंद पगचाल भरती,
चली देवालय ओर
सखी! भई भोर।

सीढ़ियों को प्रथम प्रणाम कर,
मुख मे अटकी,
दुःख हमारे, हे राम हर।
होंठों में श्लोकों की बुदबुदी थी,
ठंडी हवाओं ने लगाई गुदगुदी थी।
घंटों के स्वर से जगाई राम को।
राज में जिनके प्रतिष्ठित शांति
अविराम जो।

हे राम! कब लाओगे फिर स्वराज को,
उठकर संवारों पुनः राज्य को।
कब तक पुराणों के सिरहाने सोये रहोगे?
कब तक दीवाली-दशहरे में खोये रहोगे?
कब तक चढ़ाऊँ नोच तुमको भांग मैं?
कब तक भरूँ, चूर ईंटों को अपनी मांग मैं?

लुट नित्य सीता की रही जब आन है,
तब तो नहीं दिखता कहीं हनुमान है।
जल रही हर नयनों मे तेरी आस है,
बुझती दीपों में अब भी बाकी प्यास है।
आना पड़ेगा राम तुमको वनवास से,
खुद को समेटे बैठी हूँ इस आस में।



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