Thursday, 23 October 2014

दीपावली : महंगाई और प्रदूषण का महापर्व...

सुबोध आनंद गार्ग्य...
दीपावली में चाईनीज इलेक्ट्रीक झालरों के आगे दीपक की रोशनी कम होती जा रही है. दीपावली का दीपक हर स्तर पर जीवन को प्रकाशमय करे, यही इस त्योहार की मूल भावना है. पर ध्यान रखना होगा कि दिनोंदिन बढ़ता प्रदूषण और महंगाई इस प्रकाश को मंद ना कर दे. दीवाली की शुरुआत धन-तरसे, सॉरी धनतेरस से होती है. परंपरा कहती है कि धनतेरस के दिन हमें सोना खरीदना चाहिए. एक तो यह समझ में नहीं आता कि बिना रेट लिस्ट देखे परंपरा यह सब औपचारिकता हम पर क्यों लाद देती है.
100 रुपये किलो प्याज हो जाने के कारण जब हम दाल में तड़का लगाने की परंपरा छोड़ सकते हैं तो 40,000 रुपये तोला वाला सोना भला कहाँ से खरीद पायेंगे? बावजूद इसके अगर आपको परंपरा निभानी है तो सोना ना सही आप सोना-चाँदी च्यवनप्राश जरूर खरीद सकते हैं. ‘‘स्टार’’ लगाकर कहीं कंडीशन तो अप्लाई नहीं है कि हम सोने की जगह सोना-चाँदी च्यवनप्राश नहीं खरीद सकते.
आखिर में बचे पटाखे, जो दिवाली के सबसे बड़े दुश्मन हैं. आप दुकान पर जाकर एक बार पटाखों की कीमत पूछिये, इसके बाद आपके कानों से धुआँ निकलने लगेगा, चेहरे की हवाईयाँ उड़ने लगेंगी. दिवाली की रात आतिशबाजी से वायु और ध्वनि प्रदूषण सामान्य दिनों की अपेक्षा कई गुणा बड़े पैमाने पर होती है.इस कारण अनेक गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती है. अस्पतालों के आंकड़े बताते हैं कि दीपावली के अगले दिन जलने-झुलसने, दमा, दिल के दौरे के मरीज़ बड़ी संख्या में उनके यहाँ ईलाज के लिये आते हैं. दीवाली की रात छोड़े जा रहे गगनचुंबी रॉकेट्स को जब आप देखेंगे तो बस यही सोचेंगे कि क्या इनमें से कोई आसमान छूती उस महँगाई को
भेद पाएगा, जो शायद अब धरती के गुरूत्त्वाकर्षण क्षेत्र को पार कर चुकी है. दरअसल समय के साथ कुछ धार्मिक रीति-रिवाज़ों को हमें प्रतीकात्मक रूप दे देनी चाहिए ताकि बदलते परिवेश में इन रीतियों से किसी प्रकार की क्षति ना हो. अब इससे अच्छा क्या हो सकता है कि साल की सबसे प्रकाशमयी रात में हम पूरे समाज और मानवता के लिए उम्मीद के दीये जलायें.
इस तरह के सामाजिक सरोकार से यदि हमारे पर्व-त्योहार जुड़ते रहे तो उनकी पवित्रता के साथ-साथ उनकी सार्थकता भी बढ़ जाएगी.

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