इन दिनों हमारा देश "बनाम" की बात में व्यस्त है । रोज बनाम के नए नए प्रकार दिखाई सुनाई देते हैं । भाजपा बनाम कांग्रेस , मोदी बनाम राहुल , हिंदू बनाम मुस्लिम , योगी बनाम अखिलेश , विराट बनाम रोहित , शाहरुख बनाम सलमान इन सबसे ऊब कर अब लोग नए बनाम ढूंढने लगे हैं ।
पिछले कुछ दिनों से हिजाब बनाम घूंघट भी चर्चा में है।
त्रिचि से चेन्नई होते हुए दिल्ली तक की पांच घंटे की हवाई यात्रा में ऐसे ही कुछ नए बनामों से साक्षात्कार हुआ । सच में लगा की हमारी रचनात्मक ऊर्जा कितनी जल्दी ऐसे मुद्दे ढूंढ लेती है जिससे हमे बहस का मुद्दा मिल जाए। छोटी छोटी बातों पर लंबी बहसे करने की क्षमता शायद कोरोना के लॉक डाउन और वर्क फ्रॉम होम में और बढ़ी है। रोज घर बैठे हमने रियाज़ जो किया है इसका इतने दिन तक। अब जैसे ही स्थितियां सामान्य होने की दिशा में बढ़ रही है हर व्यक्ति अपनी उस अर्जित प्रतिभा का प्रदर्शन करने के लिए बेकरार दिखाई देता है। बिल्कुल बचपन के दिन याद आ गए जब गर्मियों की दो महीने की छुट्टीयो के बाद स्कूल खुलते थे और हम सब बेकरारी से प्रतीक्षा कर रहे होते कि कब टीचर पूछे "इस बार छुट्टियों में क्या क्या सीखा " और हम उन्हे अपने नए रचनात्मक इज़ाफे के बारे में बता पायें।
त्रिचि से सुबह की फ्लाइट थी जो हमे 40 मिनट में चेन्नई पहुंचने वाली थी। जैसे ही परिचारिका ने अपनी उद्घोषणा समाप्त की एक भाई साहब अंग्रेजी में बोले " if you can speak in Hindi and English, why can't you speak in Tamil ? परिचारिका के पास इसका उत्तर नही था । उसने पहले ही अपने रूटीन अंदाज में बता दिया था कि इस विमान में क्रू हिंदी , इंग्लिश, बंगाली और नेपाली बोल सकते है। यह घोषणा इंडिगो में ही होती है l जो भाषा बोलने वाली परिचारिकाएं होती है उन्ही के बारे में बताया जाता है । इस अचानक हुए हमले से वह थोड़ी नर्वस हो गई। जाहिर है कि यह कमेंट अच्छी खासी बुलंद खुरदुरी आवाज में किया गया था। वे सिर्फ एक यही वाक्य बोलकर रुके नहीं अंग्रेजी में लगातार बोलते चले गए। उनके सामने वाली सीट पर बैठे सज्जन ने कहा " but sir you can understand English." इस कॉमेंट ने आग में घी का काम किया और फिर हम स्वतंत्रता के बाद से शुरू हुए भाषा विवाद का सारांश बड़ी देर तक सुनते रहे। चेन्नई कब आया पता ही नही चला।
चेन्नई से दिल्ली के लिए विमान में दाखिल हुए तो आगे वाले बनाम पीछे वाले के वाद के रोचक संवाद सुनने को मिले। विमान में बैठाने की सुविधा को देखते हुए पहले पीछे की सीट वालों को बैठाया जाता है। कुछ लोग जो ज्यादा सामान लिए हुए होते हैं वे जहां जगह मिले वहां अपना सामान रखते हुए चले जाते हैं । ऐसे में आगे की सीट वालों को बाद में आकर अपना सामान रखने के लिए जगह कम मिल पाती है। दिक्कत तब होती है जब बाद में आने वाले के पास भी ज्यादा सामान हो । उसमे पेंच ये भी है कि आगे की कुछ सीटें ज्यादा दाम देकर बुक की जाती है। ऐसे में इस बात के लिए कुंठित होना स्वाभाविक भी दिखता है। फिर सीट के लिए ज्यादा दाम देने की गर्मी तो होती ही है।
विमान में दाखिल हुए तो देखा एक सज्जन अपनी मारवाड़ी मिश्रित अंग्रेजी के परिचारिका को बता रहे थे " मैं झगड़ नही रहा हूं मैं तो अपना प्वाइंट रेज कर रहा हूं। इन पीछे वालों को समझना चाहिए। " वे भले ऐसा कह रहे थे लेकिन उनका स्वर काफी आक्रामक और तल्खी भरा था। परिचारिका ने उन्हे कहा कि " मैं आपके बैग अपने पास पीछे रखती हूं। जब आप उतरने लगेंगे तब दे दूंगी।" लेकिन वे सज्जन समझोता करने को तयार नही थे। अपनी आवाज चढ़ाते हुए बोले " आप पीछे वालों के बैग क्यों नही रखती। ये तो हमारी जगह है। इसलिए तो पैसे ज्यादा दिए कि हमारी आगे की सीट हो और हम जल्दी उतर पाएं। आप बैग पीछे रखेंगी तो हमे वेट करना पड़ेगा उसके लिए।इन पीछे वालों को तो कुछ समझाइए ।"
जब उनके वार्तालाप में दो तीन बार पीछे वाले शब्द आया तो सोचा उन सज्जन को टोकूं और कहूं कि" भाई साहब वैसे ही बहुत सारी दरारें पैदा करने की कोशिश की जा रही हैं । अब आप एक नया वर्ग संघर्ष खड़ा मत करें। " वह तो भला हो परिचारिका का कि उसने बहुत समझदारी से बात को बढ़ने से बचा लिया और उनके सामान को आगे आगे की किसी जगह में एडजस्ट कर लिया।
एक और अलग सा बनाम भी देखने को मिला जो बिल्कुल अप्रत्याशित था। इमरजेंसी बनाम इंजर्ड का। हुआ यह कि एक बुजुर्ग जिन्हें व्हील चेयर पर लाया गया था ज्यादा leg space के भ्रम में इमरजेंसी exit पर बैठा दिए गए। उनके कूल्हे में फ्रेक्चर होने के कारण उन्हे ज्यादा हिलने डुलने की मनाही थी और पैर सीधा रखना था।अब वे उस जगह खुद बैठे या एयरलाइंस की किसी गफलत के कारण बैठा दिए गए पता नही। लेकिन जब कर्मी दल के किसी सदस्य का ध्यान उस ओर गया तो उनकी सीट बदलना लाजिमी हो गया क्योंकि नियमतः इमरजेंसी एग्जिट पर तो 60 की उम्र से कम ऐसे ही लोगों को बैठाना होता है को स्वस्थ हों और आपातकाल में फुर्ती से उठ कर द्वार का लीवर उठा कर उसे बाहर धकेलने में सक्षम हों। लेकिन उन बुजुर्गवार और उनकी श्रीमती जी को यह समझाना कठिन हो गया कि उनकी सीट क्यों बदली जा रही है। जब वे समझे तो दूसरी समस्या उन्हे leg room वाली सीट देने की थी। फ्लाइट फुल होने से किससे सीट बदली जाए इस पर काफी सोच विचार होने लगा। चर्चा, बहस और मंत्रणा पता नही पर्यायवाची है या तीन अलग रूप। लेकिन तीनों रूपों के दर्शन हो गए। अंततः जब वे बुजुर्ग अपनी परिवर्तित सीट पर बैठे तो वे परिचारिका से यह सुनते पाए गए " आय एम इंजर्ड बट आय एम नॉट एन इमरजेंसी। " ऐसा लगा कि सीट बदलने की इस पूरी कवायद के बाद भी (इस कवायद के कारण फ्लाइट भी कुछ देर से चल पाई ,) वे शायद समझ नही पाए थे कि उनकी सीट क्यों बदली गई है। इतना जरूर है कि इस प्रकरण के बाद पूरे क्रू ने उन बुजुर्गो की इतनी सेवा की कि वे अपने सारे गिले शिकवे भूल गए और उन्होंने क्रू की बच्चियों को ढेर सारे आशीष दिए ।
इतनी जद्दोजहद के बाद चेन्नई से दिल्ली का हमारा जब विमान चलने को हुआ तो 14 फरवरी होने से परिचारिका ने वेलेंटाइन डे के लिए एक संदेश पढ़ा। जैसे ही उसका संदेश खत्म हुआ एक बुजुर्ग महिला बोल उठी "वेलेंटाइन डे उतना जरूरी नहीं है जितना पुलवामा ।" बात उनकी ठीक थी लेकिन बोलने का अंदाज़ बड़ा गलत था। कोई भी उससे अपमानित या आहत महसूस कर सकता था । परिचारिका ने फिर भी बड़े धैर्य से कहा "हम वही बोलते हैं मैडम जो कंपनी से लिखकर आता है"। मुझे परिचारिका से पूरी सहानुभूति थी । बेचारी कई बार तो हमारे स्वतंत्रता सेनानियो के नाम ठीक से पढ़ भी नही पाती। आजादी के अमृत महोत्सव में किसी ऐसे व्यक्ति का संदर्भ या घटना का संदर्भ फ्लाइट के दौरान देना होता है। उस समय होने वाली फजीहत को कई बार देखा है। बात वहीं रुक जाती तो अच्छा था । बात बढ़ते बढ़ते बाजारवाद और उपभोक्तावाद तक पहुंच गई। बेचारे वेलेंटाइन डे की खुशियां कहां काफूर हो गई पता ही नही चला।
वैसे आज वेलेंटाइन डे है यह याद करने के हमारे दिन शायद चले गए। इसलिए तो सुबह त्रिचि एयरपोर्ट पर एयरलाइंस के कर्मचारियों को सुंदर कैजुअल पोशाख में देखकर भी दिमाग की बत्ती नहीं जली। जो भी हो आपको वेलेंटाइन डे मुबारक। अब आप यह बनाम मत खड़ा कर दीजियेगा वेलेंटाइन या वसंतोत्सव। आप कुछ भी मनाए बस आपस में प्रेमभाव बनाए रखें और खुशियां बांटे।
(डॉ सचिदानंद जोशी के फेसबुक वाल से साभार)
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