Wednesday, 28 January 2015

भूमि अधिग्रहण कानून और विकास

बिपिन बिहारी दुबे
1894 में ब्रिटिश सरकार के द्वारा भूमि अभिग्रहण कानून लागू किया गया। इस कानून को लागू करने का एक मात्र उद्देश्य ब्रिटिश कम्पनियों को लाभ पहुँचाना था, भारतीय किसानों का हित नहीं। 1947 में भारत आजाद हुआ किसानों को इस कानून से मुक्ति पाने के लिये एक उम्मीद की किरण दिखी। आजादी के 66 साल बाद कई सामाजिक संगठनों और किसानों के अथक प्रयास के बाद 2013 में कानून संशोधित हुआ और कुछ हद तक किसानों के हित में लागू हुआ। 2014 में सत्ता परिवर्तन हुआ, अध्यादेश के जरिये भूमि अधिग्रहण कानून फिर बदला गया और हम वापस 1894 की उसी स्थिति में पहुँच गये। इस बीच भट्टा परसौल, नंदीग्राम, सिंगूर आदि कई जगहों पर किसानों की जमीन हड़पने की कोशिश हुई, टकराव हुआ और जान-माल का नुकसान भी। यह पूरा किस्सा लगान फिल्म के उस दृश्य की तरह है जिसमें सूखाग्रस्त क्षेत्रों में बादल नहीं आते और बहुत मिन्नतों के बाद आते भी हैं, तो बिना बरसे गायब हो जाते हैं। 
2013 में उस समय की संप्रग सरकार ने ‘’उचित मुआवजा, भूमि अधिग्रहण मंे पारदर्शिता, पुनर्वास और पुनर्स्थापन के अधिकार अधिनियम 2013 के जरिये भूमि अधिग्रहण के मामलों में किसानों के हितों का ख्याल रखा। हालाँकि इस कानून को भी सम्पूर्ण न मानकर कई सामाजिक संगठनों ने इसमें और सुधार की मांग की। वर्तमान लोक सभा अध्यक्ष और तब इस कानून निर्माता समिति की अध्यक्ष रहीं सुमित्रा महाजन ने भी कहा था कि ''यह कानून भूमि अधिग्रहण को लेकर किसानों के हितों की रक्षा करने वाला सर्वश्रेष्ठ कानून तो नहीं, पर उस दिशा में एक सार्थक प्रयास जरूर है।'' 
2014 में अच्छे दिनों के नारों पर सवार हो कर आई वर्तमान मोदी सरकार ने एक अध्यादेश के जरिये उन सभी प्रयासों पर पानी फेर दिया जिसके बदौलत किसानों को कुछ लाभ मिलने की आस जगी थी। उदाहरण के लिये 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून में सरकारी उपयोग और गैर-सरकारी उपयोग हेतु भूमि अधिग्रहण के लिये क्रमशः उस क्षेत्र के 70% और 80% किसानों से सहमति लेने का प्रावधान था, जो कि 2014 के अध्यादेश के द्वारा हटा दिया गया है। इस अध्यादेश के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा, ग्रामीण आधारिक संरचना, जन-आवासीय परियोजना, औद्योगिक कॉरिडोर, और सामाजिक आधारिक संरचना के लिये किसी भी जमीन को अधिगृहीत किया जा सकता है, जबकि 2013 के कानून में बहुफसली जमीन का अधिग्रहण किसी भी हालत में नहीं हो सकता था। 2013 के कानून में जमीन अधिग्रहण करने से पहले वहाँ के पर्यावरण और समाज पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया जाना आवश्यक था। ग्रामीण किसानों को बाजार मूल्य का 4 गुणा और शहरी किसानों को बाजार मूल्य का 2 गुणा मुआवजा देने का प्रावधान भी 2013 के कानून में था। इसके अलावा अगर जमीन अधिगृहीत होने के 5 साल के अन्दर उसका उपयोग नहीं होता तो उसे वापस किसानों को दिया जाना था। 2014 में राजग सरकार के मंत्रिमंडल द्वारा पारित अध्यादेश के जरिये किसानों के हितों को साधने वाले इन सभी प्रावधानों को हटा दिया गया है। 
संप्रग सरकार के समय लोक सभा में विपक्ष की नेता रहीं और वर्तमान सरकार में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने भी कानून को पारित करवाने में अपने योगदान का बखान करते न थकती थीं। गोपीनाथ मुंडे ने भी  मंत्री पद के शपथ लेने के बाद 2013 के कानून को किसानों के हित में और मजबूत करने को कहा था। एक ऐसा कानून जो पक्ष  विपक्ष दोनों तरफ से सराहा गया हो उसे अध्यादेश जैसी अलोकतांत्रिक प्रक्रिया द्वारा बदल देना मोदी सरकार को शक के कटघरे में खड़ी करती है। 
23-24 जनवरी को दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थित एन डी तिवारी भवन में कुछ सामाजिक संगठनों  और राजनीतिक दलों ने इस अध्यादेश को कानून न बनने देने के अपनी प्रतिबद्धता जाहिर की। जनता के हितों के विरुद्ध लाये गये इस अध्यादेश के निरस्त होने तक सड़क से लेकर संसद तक अपनी आवाज बुलंद करने का आह्वान भी किया। सामाजिक कार्यकर्ता और नर्मदा बचाओ आंदोलन की पुरोधा मेधा पाटेकर ने इस अध्यादेश को शर्मनाक बताते हुए कहा कि ‘’ वर्तमान सरकार मेक इन इंडिया के नारे के नाम पर देश के प्राकृतिक संसाधनों को कुछ निजी कॉरपोरेट घरानों के हाथों  बेचने का काम कर रही है। औद्योगिक कॉरिडोर के नाम पर किसानों के जमीन हड़पने के साथ-साथ , कोयला, जल, जंगल, सभी प्राकृतिक संपदाओं को चंद व्यवसायिक लोगों के हाथ में बेचकर पता नहीं मोदीजी कैसे भारत का निर्माण  करना चाहते हैं”। हालाँकि इस बीच सरकार भी संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर इस अध्यादेश को कानून बनाने की जुगत में लगी है। राज्य सभा में अल्पमत में होने के कारण दोनों सदनों में इस कानून को पास कराना सरकार के लिये भी संभव नहीं है। अंत में यह भारत की जनता को तय करना है कि वो  सरकार की इन जनविरोधी नीतियों के खिलाफ सड़क पर आए या अच्छे दिन की खुमारी में मौन व्रत धारण कर इन जनविरोधी नीतियों का मूक समर्थन करे।
04 फरवरी 2015 को जनसत्ता में प्रकाशित
   

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