Saturday, 8 August 2015

साम्प्रदायिकता एक अभिशाप

संदीप  कुमार
जाति-घर्म  आदि की भिन्नताओं  को ही धर्म का आधार मानना  तथा  अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ व दूसरे धर्म  की आलोचना करना उसके प्रति नफरत, द्वेष फैलाना सामाजिक विभाजन का कारण बनते हैं. यहीं से सांप्रदायिकता का भाव उत्पन्न होता है. परन्तु इसी तरह धर्म के नाम  पर देश  बनेगा तो इस विविधता भरे भारतीय राष्ट्र की तस्वीर क्या होगी ? पर वास्तविकता तो यह है कि धर्माधरित राष्ट्र के पीछे अनेक  राजनीतिक हित छिपे होते हैं. धर्म के नाम पर सत्ता हाँसिल करने की हर कोशिश  साम्पदायिकता को बढा़ती है, हमारे  देश  में थोक-भाव में वोट  हाँसिल करने के लिए धर्म-गुरुओं एवं धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल लगभग सभी दल कर रहे हैं, जो दल धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं वह भी मौकापरस्त राजनीति करते हुए दिखते हैं, इन  दलों ने सत्ता में भागीदारी के लिए सांपदायिक दलों से समझौते भी किए हैं, परन्तु इतिहास में हुये साम्पदायिक दंगो में  समाज के किसी एक वर्ग को ही नुकसान पहुँचा है, ऐसा नहीं है  इन दंगो में समाज के हर वर्ग को क्षति पहुची हैं. इन दंगो में जितनी हिस्सेदारी राजनितिक दलों की है उससे ज्यादा समाज की भी है, क्यों की यह घटनायें हमारे समाज में ही हो रहीं है  व हमारे द्वारा ही हो रहीं हैं. और यह घटनायें दिन-प़तिदिन  बढ़ती ही जा रहीं है. गृह मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट बताती है की इन घटनाओं में  वृद्धि हुई है २०१५ के शुरुआती ६ माह में देश में  साम्प़दायिक दंगो के ३३० मामलों में ५१ लोगों को जान गंवानी पडी़ और न जाने कितनों को बेघर होना पडा़. यह घटनायें उन राज्यों में ज्यादा हुईं जहॉ शिक्षा का अभाव है. साम्प़दायिकता जैसे मुददे पर समाज व सरकार को गम्भीरता से सोचना चाहिये व राष्ट्र में एकता व  अखंडता का भाव पैदा करने का प़यास करना चाहिये जिससे हमारे देश की विविधता में एकता बनी रहे।

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