बिपिन बिहारी दुबे
मेले का यह
दृश्य राजस्थान के उदयपुर जिले के झाड़ोल का है। राजस्थान के
इस मेवाड़ क्षेत्र में होली का रंग अब मेले का रूप ले चूका है। होली के बाद
से लगभग 15 तक इस तरह के कई मेले अलग-अलग गाँव में जमते रहते हैं। मेला का नाम भी तिथि के अनुसार ही होता है। जैसे झाड़ोल में लगा यह मेला दशम का मेला है। इसके पहले एकम
का मेला मंगवास, पाचम का चन्दवास, नवम बागपुरा
आदि अलग-अलग जगहों पर लग चूका है। ग्यारस का मेला गोराणा फिर चौदस का गरासिया होते हुए मेले का यह सिलसिला
गोगुन्दा में जा कर थमता है। जहाँ गणगौर का मेला लगता है। जो तीन दिन तक चलता है. (भारतीय इतिहास में गोगुन्दा महाराणा प्रताप
और अकबर के युद्ध क्षेत्र के रूप में मशहूर है। हल्दी घाटी
यहाँ से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।)
मेलों का
इतिहास जानने के लिए मैंने कई लोगों से बात किया। सबका जवाब एक
जैसा रहा. ‘’ यह मेला कब से शुरू हुआ इसका तो पता नहीं पर
मैं यह मेला अपने बचपन से देखता आ रहा हूँ। और मेरे पिताजी भी
यही कहते थे।’’ कहना था उच्च प्राथमिक विद्यालय पालावाड़ा के
प्रधानाध्यापक देवीलाल जी भुदरा का। इससे यह अंदाजा लगा सकते हैं कि यह मेला
सदियों का इतिहास अपने अन्दर समेटे हुए हैं। इन मेलों में आदिवासी
समाज की भागीदारी सबसे ज्यादा होती है। या फिर ये कहना कि ये
मेले आदिवासी परम्परा की ही देन है गलत नहीं होगा। मेला क्यों
लगता है का जवाब भी ज्यादातर लोग एक जैसा ही देते हैं। ‘’आज के दिन दशवा
माता का पूजन होता है। इस ख़ुशी में यह मेला आज झाड़ोल में लगा है।’’ मेवाड़ में एकम से लेकर दशम तक हर दिन माता का पूजन होता है। जिसमें महिलाएं दसो दिन पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर भजन-कीर्तन करती है। आखिरी दिन पूजा के बाद सब एक-एक रक्षा सूत्र अपने गले में पहनती हैं। जो अगले साल
तक उनके साथ बना रहता है। मेला लगने का एक दिलचस्प कारण यह भी पता
चलता है।‘’सर पहले सब लोग खेती-किसानी करते
थे। होली का समय ऐसा होता है जब सारे खेत पक
जाते हैं या पकने को होते है। एक किसान के लिए इससे ज्यादा ख़ुशी क मौक़ा और
क्या हो सकता है? जब उसके कई महीनों की कमाई घर में आने को
होती है। इसलिए ख़ुशी मनाने के लिए इन मेलों का आयोजन
होता रहा है। जिसमें समाज के सभी लोग एक साथ इकट्ठे होकर
नाचते गाते हैं। गेर रमते हैं। और ख़ुशी मनाते
हैं। इसलिए पूर्वजों ने इस तरह की परम्परा का
विकास किया होगा।’’
‘गेर’ मेवाड़ का प्रसिद्ध लोक
नृत्य है। जो कुछ-कुछ गुजरात के
लोक नृत्य गरबा से मिलता जुलता है। इस नृत्य में लोग ढोल की थाप पर हाथ में
लकड़ी का एक डंडा लिए नृत्य करते हैं। जिसमे गरबा की भांति ही लोग एक दुसरे की
लकड़ी पर ठोकते है और गोला बनाकर नृत्य करते हैं। मेले के दिन
यह नृत्य लगभग पूरे दिन चलता रहता है। जिसमें सब लोग अपने-अपने ढोल के साथ इकट्ठे होते है और गेर रमते हैं। देवीलाल जी
कहते हैं कि ‘’अब तो यह परम्परा दिन पर दिन कम होती जा रही
है। हमारे बचपन के दिनों में क्या खूब गेर रमा
जाता था।’’ इन मेलों के दौरान ही महिलाएं अलग-अलग समूह बनाकर डफली के साथ गीत गाती हैं और बदले में लोगों से उनके इच्छा
अनुसार पाँच या दस रूपए लेती हैं। कितनी कोशिश के बावजूद भी मैं इन लोकगीतों
का दस प्रतिशत भी नहीं समझ सका। इसके बावजूद मैं अलग-अलग महिलाओं
के समूह में घूमकर इन गीतों को सुनता रहा। और इन गीतों की मधुरता का आनंद लेता रहा। अपने पारंपरिक लिबासों
में सजी आदिवासी स्त्रियाँ और उनके गीत इन दिनों पूरे मेवाड़ की सौन्दर्यता में चार चाँद
लगाते हैं।
लोगों के
अनुसार यह मेला मिलन का मेला होता है। जिसमें दूर-दूर से आए लोग एक दुसरे से मिलते है। हालांकि यातायात के
साधनों के विकास होने से और सूचना क्रांति के इस दौर में मिलन की रोचकता अब लगभग
समाप्त हो चुकी है। पहले लोग इन मेलों में ही एक दुसरे से
मिलने का वादा करते थे। या फिर अपनों से बिछड़े लोग इन मेलों में ही
वापस मिलते थे। ये मेले लोगों को अपने साथी चुनने और उन्हें
एक-दुसरे से मिलने-मिलाने भी
अहम् भूमिका अदा करते हैं। पहले के जमाने में युवक-युवतियाँ इन मेलों में ही एक दुसरे को पसंद करते थे और फिर एक दुसरे के साथ हो लेते थे। प्रेम और पसंद के
इजहार में मेले में लगी डोलर(झुला) की भूमिका भी महती
होती है। कहा जाता है कि लोग अपने साथी को चुनने के
बाद सबसे पहले इस डोलर में ही बैठाते थे। (धीरे-धीरे अब कई प्रकार के झूले इन मेलों में आने लगे हैं। जैसे मौत का
कुआँ इस बार झाड़ोल के मेले में पहली बार आया था।) फिर मेले में लगी दुकानों से कुछ खाने-पीने के साथ उनका रिश्ता पक्का हो जाता था। इज़हार दोतरफा होता है। इसलिए ही मेले
का इंतज़ार युवा लड़के-लड़कियों को सबसे ज्यादा रहता
है। पितृसत्ता का प्रभाव यहाँ भी देखने को
मिलता है। जिसमें ज्यादातर समय चुनने और छोड़ने का अधिकार पुरुषों का ही होता है। इसके बावजूद महिलाएं भी अपने लिए साथी चुनने और छोड़ने का निर्णय लेती है। इन सबके बीच एक जरूरी कार्य यह होता है कि अगर महिला शादीशुदा है तो उसके
नए साथी को पुराने पति को कुछ पैसा देना पड़ता है। ऐसे में लड़ाई-झगड़ा होना स्वाभाविक हो जाता है। आधुनिकता के साथ ही ये
सारी बातें अब पुराने किस्सों में बदलती जा रही
हैं। क्योंकि अब इन मेलों में पुलिस सुरक्षा
व्यवस्था चाक-चौबंद रखती है।
इन मेलों से
ही एक तरह से लोगों का नया साल शुरू होता है। लोग
अपने जरुरत का सामान भी यही से खरीदते है। इसलिए मेले में जीवन-यापन से जुड़ीं हर तरह की सामग्री उपलब्ध होती है। अभी भी
ज्यादातर लोगों के घर कच्चे होने के कारण उसे सजाने, बच्चों के लिए
खिलौने, कुल्फी, मलाई, सौंदर्य सामग्री के कुछ छोटे-छोटे दूकान, भजिया(पकौड़े) आदि छोटी-छोटी दुकाने
इन मेलों में रौनक लाती हैं। दिन ढलने के साथ-साथ आदिवासी
समाज के लोग धीरे-धीरे अपने घर को वापस लौट जाते हैं। फिर समाज के अन्य वर्गों के लोग मेले में आते हैं। दिन में मेला
नहीं घुमने का दोष कुछ लोग भीड़ को देते हैं तो कुछ आदिवासियों के बीच मेला घुमना
उचित नहीं समझते। ऐसे ही कुछ भूली-विसरी यादों
को सजोये मेला हर दिन अलग-अलग जगह सजता और उखड़ता
रहता है।
(दैनिक जागरण नेशनल पेज 9 अप्रैल 2017 को प्रकाशित)
(दैनिक जागरण नेशनल पेज 9 अप्रैल 2017 को प्रकाशित)
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