Monday, 2 May 2016

सांस्कृतिक पहचान को बचाए हुए उत्तराखंड का जागेश्वर गाँव


दीपक झा 
21वी सदी का भारत जितना भव्य है उतना ही जटिल भी. वर्तमान समय में भारत की प्राचीन सभव्यता दिन व दिन विलुप्त हो रही हैं. जिसकी जगह अब तकनीक सम्भयता ले चुकी है. मगर भारत में आज भी एक जगह ऐसी हैं जहा हमारी संस्कृति अपने अस्तित्व में हैं. बीते दिन मैं किसी काम से उत्तराखंड गया था,  वह ऐसी जगह है जहा मनुष्य का प्रकृति की खूबसूरती से मिलाप होता हैं, जहा जल, जंगल और ज़मीन आपके अस्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं. जल आपको ज़िन्दगी की तहज़ीब सिखाती हैं, जंगल आपको ज़िंदगी की जटिलताओं से सकारात्मकता की ख़ोज सिखाती हैं और ज़मीन आपको ज़िंदगी की विन्रमता सिखाती हैं.
मैं उत्तराखंड के 6 विधानसभा में घूमा मगर जो सीख मुझे जागेश्वर में मिली मैं उसे हमेशा जेहन में बसा के रखूँगा. जागेश्वर उत्तराखंड के भगौलिक परिदृश्य के हिसाब से सबसे अंतिम गाँव मान जाता है. मैंने जागेश्वर के कई गाँवों  का भ्रमण किया. एक गाँव से गुज़रते वक़्त अचानक मेरी नज़र वहा के एक विद्यालय पर पड़ी उस समय विद्यालय में प्री बोर्ड के परीक्षा चल रही थी, बच्चे अपना अपना परीक्षा-पत्र लिख रहे थे. मेरी नज़र बच्चों के हाथो में पुराने समय में लिखे जाने वाले कलम-दावात पे गयी, मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये बच्चे वाल पेन को छोड़कर कलम-दावात से क्या कर रहे हैं, यहाँ मौजूद प्रधानाचार्य जी से मैंने पूछा की बच्चों के हाथो में ये कलम-दावात क्यों? उन्होंने मुझे जो बताया की यहाँ का हर बच्चा इसी कलम-दावात वाली कलम से लिखता हैं. यह जान मुझे काफी आश्चर्य हुआ कि आज जहा क्लास रूम में ब्लैकबोर्ड की जगह स्मार्टबोर्ड ने ले ली हैं, वहा इस जगह बच्चे आज भी कलम-दावात से लिख रहे है. उत्तराखंड का जागेश्वर अपने आज में भी कल को समेटे हुए हैं. उसकी संस्कृति,विनम्रता को अपने अंदर कैद किये हुए हैं.
इसी सीख को अपने ज़हन में समेटे हुए मैं आगे अपनी दिशा में बढ़ता चला जा रहा था तभी मेरी नज़र पहाड़ पर साफ़ सफाई करते दो बच्चों और एक महिला पर गयी.मैं बड़ा आश्चर्य हुआ कि दिल्ली जैसे प्रदुषित अथवा सैलानी के घुमाने फिरने का प्रमुख केंद्र जहा इतने सैलानी भारत भ्रमण के लिए आते है, वहा मैंने आज तक किसी भी व्यक्ति को निस्वार्थ भाव से साफ़ सफाई करते नहीं देखा, मगर ये लोग वहा सफाई कर रहे हैं जहा ना तो सैलानियों की इतनी आवा जाही हैं और ना ही गंदगी हैं. इसलिए मैं तुरंत उनसे बात करने के लिए चला गया, तो पता चला कि वो महिला पास के ही एक प्राइमरी विद्यालय की एक अध्यापिका और वो दो बच्चे इनके छात्र.  बात करने से पता चला की वो बॉटनी की अध्यापिका हैं और अक्सर अपने छात्र के साथ पहाड़ पर मौजूद गंदगी की साफ़ सफाई करती हैं. जमा किये कचड़े को री-साइकिल कर वहा की प्राकृतिक खूबसूरती को यथावत रखने में मदत करती हैं. इस सामाजिक कार्य के लिए उत्तराखंड की सरकार इस अध्यापिका को वर्ष २०१६ में  सम्मानित भी कर रही हैं. इस वैश्विक युग में ज़िंदगी की तमाम जटिलताओं से लड़कर, अपने आज में कल को समेटते हुए उत्तराखंड वासी अपने अस्तित्व बचाये हुए हैं.

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