Wednesday, 14 December 2016

एक अस्पृश्य से संविधान निर्माता तक


दीपक झा 


कहा जाता है कि एक स्वस्थ समाज वही होता है जहाँ लोगों में सिस्टम-सत्ता से सवाल पूछने का साहस हो और यह तभी मुमकिन है, जब हम लोगो में आलोचनात्मक विवेक उत्पन कर सके। परंतु हर शासनकर्त्ता अपनी सत्ता को बरकरार रखने के लिए एक ऐसे समाज को कभी पनपने नहीं देता जहाँ लोग तर्कशील और क्रियाशील हो। इसी का नतीजा है कि जातिवाद नामक श्राप आज भी हमारे समाज में मौजूद हैं। सवर्णों के द्वारा बनाई गयी यह व्यवस्था आज भी सामाज के पिछड़े लोगो को तीसरी दुनिया की ओर ढ़केल रही हैं। जहाँ व्यक्ति आज भी बुनियादी सुविधाओं के लिए जूझ रहा है। आज भी सवर्ण, पिछड़ो को उनके मौलिक अधिकार से वंचित रखते है, उनपे शोषण तथा अत्याचार करते हैं। 
इसी का उदाहरण है गुजरात के ऊना की घटना जहा गौरक्षको द्वारा 7 दलितों को गौहत्या के कोरे शक में बहुत उत्पीड़ित किया गया। इसलिए आज हमें बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर के उन विचारो को समझने की आवश्यकता है, जिनमें वो जातिवाद के सामाजिक, धार्मिक व आर्थिक विषमताओं का वर्णन करते हैं। बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का जीवन जातिविहीन समाज के संकल्प का अभिप्राय हैं। वो समाज में दलितों को उनका नैतिक हक़ दिलाना चाहते थे और उन्हें भी समाज की मुख्याधरा में सिम्मिलित करना चाहते थे। उनका मानना था कि एक आदर्श समाज वो होता है जहा स्वायत्ता, समानता तथा भाईचारा मौजूद हो और यह तब तक मुमकिन नहीं है जब तक हम समाज में फैली जातिगत व्यवस्था को ख़त्म न करदें।
बाबा साहब भीमराव आंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 में मध्यप्रदेश के महू में हुआ था। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा विदेश से प्राप्त की । महार जाति में जन्म लेने के कारण बाबा साहब  को बहुत भेदभाव का सामना करना पड़ा। उनकी विद्वता जातिगत विषमता के कारन नेपथ्य में चली गयी। तभी बाबा साहब ने फैसला किया कि वो अपनी पूरी ज़िंदगी अब दलितों के सामाजिक, राजनीतिक अथवा धार्मिक उत्थान के संघर्ष की आवाज़ उठाएंगे। उनका मानना था कि समाज में पहले कोई जातिगत व्यवस्था नहीं थी, ये सिर्फ एक जातिप्रथा है जो सवर्णों (ब्राह्मणों) के द्वारा बनाई गयी हैं। ब्राह्मण जातिगत व्यवस्था को समाज के लिए प्रासंगिक बताते थे। इसका समर्थन इस आधार पर किया जाता था कि जातिप्रथा श्रम विभाजन का एक अन्य नाम हैं। समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए वर्ण व्यवस्था बनाई गयी, जिसको चार वर्णों में विभाजित किया गया है:-1. ब्राह्मण या पुरोहित वर्ग, 2. क्षत्रीय या सैनिक वर्ग, 3. वैश्य अथवा व्यापारिक वर्ग, 4. शुद्र अथवा शिल्पकार और श्रमिक वर्ग और इसी व्यवस्था के आधार पर श्रम विभाजित होता है ताकि समाज व्यवस्थित ढंग से चल सके। बाबा साहब  इस तर्क के विरुद्ध थे 'उनका मानना था कि जातिप्रथा केवल श्रम का विभाजन नहीं बल्कि श्रमिको का विभाजन भी है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभ्य समाज को श्रम का विभाजन करने की आवश्यकता है। किंतु किसी भी सभ्य समाज में श्रम का विभाजन के साथ इस प्रकार के श्रमिको का विभाजन सही नहीं होता। श्रम का विभाजन हमेशा इंसान की क्षमता अथवा क्रमबद्धता के आधार पर होना चाहिए न कि माता-पिता के सामाजिक अस्मिता के आधार पर। कुछ लोगो ने जातिप्रथा का उद्देश्य प्रजाति की शुद्धता और रक्त की शुद्धता को सुरक्षित रखना भी बताया। जो अतार्किक और अप्रासंगिक है। बाबा साहब इस तर्क का खंडन श्री डी. आर. भंडारकर की पुस्तक 'हिन्दू जनसंख्या में विदेशी तत्त्व' (फॉरेन एलिमेंट्स इन द हिन्दू पापुलेशन) के प्रलेख के आधार पर करते हैं। भंडारकर लिखते है कि भारत में शायद ही कोई ऐसा वर्ग या जाति होगी, जिसमें विदेशी वंश का मिश्रण न हो। राजपूत और मराठा जैसी योद्धा जातियों में विदेशी रक्त का मिश्रण है बल्कि ब्राह्मणों में भी हैं, जो इस सुखद भ्रान्ति में है कि वो सभी विदेशी तत्त्व से मुक्त हैं। उनका मानना है कि जातिप्रथा तो एक ही प्रजाति के लोगो का सामाजिक विभाजन हैं। जातिप्रथा का जन्म भारत की विभिन्न प्रजातियों के रक्त और संस्कृति के आपस में मिलने के बहुत बाद में हुआ।
बाबा साहब का मानना था कि जातिप्रथा का मूल कारण समाज में सजातीय विवाह और सजातीय खान-पान की प्रथा की हैं। जिससे उन्होंने रोटी-बेटी की प्रथा का भी नाम दिया था। जातिप्रथा का अंत इस प्रथा के खात्मे से ही संभव है।
बाबा साहब का कहना था कि समाज में जातिप्रथा भारतीय राष्ट्रवाद (जिसका मुख्या केंद्र हिन्दू राष्ट्रवाद है) की अवधारणा को कभी संपन नहीं होने देगा। क्योंकि उनके अनुसार हिन्दू समाज एक मिथक मात्र हैं। हिन्दू नाम स्वयं विदेशी नाम है। यह नाम मुसलमानो ने भारतवासियो को दिया था, ताकि वे उन्हें अपने से अलग कर सके। मुसलमानो के भारत पर आक्रमण से पहले लिखे गए किसी भी संस्कृत ग्रन्थ में इस नाम का उल्लेख नहीं मिलता वस्तुतः हिन्दू समाज नामक कोई वस्तु है ही नहीं। यह तो अनेक जातियो का समवेत रूप हैं। इसलिए यह एक समुदाय के रूप में सिर्फ मुसलमानो के साथ दंगो के वक़्त दिखता हैं। इसलिए बाबा  साहब राष्ट्रवाद को सिर्फ एक कोरे कल्पना के रूप में ही देखते हैं। उनके अनुसार हिन्दू धर्म कभी एक धर्म नहीं हो सकता है क्योंकि अगर कोई व्यक्ति इस धर्म को अपना भी ले पर उसके बाद यह किस जाति में जायेगा? यह भी एक उलझा हुआ प्रश्न है। क्योंकि यह सामाजिक अस्पृश्यक्ता के कारण कभी दलित जाति कभी स्वीकार नहीं करेगा। और ब्राह्मण कभी गैर- समुदाय वाले को अपनी जाति का हिस्सा होने नहीं देंगे। इसलिए एक दिन  हिन्दू समुदाय (स्नातन धर्म) धीरे-धीरे एक सीमित दायरे में बंधता चला जायेगा।
बाबा साहब दलितों के लिए एक अलग चुनावी व्यवस्था चाहते थे, जिससे दलितो की राजनीतिक सशक्तता बढे। परंतु महत्मा गांधी बाबा साहब की इस मांग के खिलाफ थे, क्योंकि वो मानते थे की इससे हिन्दू समाज विभाजित हो जायेगा। इसलिए वो बाबा साहब की इस मांग के खिलाफ अनसन पर बैठ गए, आखिर में महात्मा गांधी और बाबा साहब  के बीच ऐतिहासिक पूना संधि समझौता हुआ। जिसमें दलितों के लिए कुछ सीटो को आरक्षित कर दिया गया।
बाबा साहब की पहचान सामाजिक जातिगत व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने के साथ-साथ संविधान निर्माता की भी है। हमारी लोकतांत्रिक स्वायत्ता जिसमें हर अभिव्यक्ति को अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता, वोट डालने का अधिकार, महिलाओं व सामाजिक पिछड़ो के लिए सामान हक़ आदि जैसे अधिकार शामिल हैं। संविधान का निर्माण अम्बेडकर के द्वरा ही सम्पन हुआ। उन्होंने हमारे संविधान को तीन हिस्सों में विभाजित किया, जिसमें हमारे मौलिक अधिकार, मौलिक दायित्व और निति निर्देशक तत्व शामिल हैं। ये तीनो तत्त्व हमारे संविधान की आत्मा हैं। महत्मा गांधी के कहने पर बाबा साहब को संविधान निर्माण समिति का अध्यक्ष बनाया गया। क्योंकि वो जानते थे कि जितनी समझ भीमराव अम्बेडकर को संविधान निर्माण के विषय में थी उतनी पूरे देश में और किसी को नहीं थी। उन्ही के कहने पर नेहरू ने बाबा साहब को अपनी सरकार में कानून मंत्री भी बनाया। जिससे बाबा साहब ने संसद में हिन्दू कोड बिल पास न होने के कारन अपने पद से इस्तीफा दे दिया। बहुत कम लोग जानते है कि वो हमारे देश के पहले श्रम मंत्री भी थे। बतौर श्रम मंत्री उन्होंने कई ऐतिहासिक काम किये है जिनमें श्रमिको के लिए न्यूनतम मजदूरी दर, न्यूनतम काम करने की अवधि, पि. एफ. व्यवस्था और मातृत्व अवकाश आदि जैसे काम शामिल हैं। 
परंतु एक पीड़ा जो बाबा साहब को जीवन भर सताती रही है, वो थी सामाजिक जातिगत व्यवस्था। जिस कारण हिन्दू धर्म से उनका मोह भंग हो चूका था और उन्होंने फैसला कर लिया था कि वो अब धर्म परिवर्तन करेंगे। इसीलिए 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने अपने लाखो समर्थको के साथ हिन्दू धर्म से बौद्ध धर्म अपना लिया।  उसी वर्ष 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में 65 वर्ष की आयु में उनका निधन भी हो गया।
जानेमाने इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने अपने एक आर्टीकल में लिखते कि 2016 में अम्बेडकर को बौद्ध धर्म अपनाने और उनकी पुण्यतिथि के 60 वर्ष पुरे हो गए। परंतु 14 अक्टूबर को कोई भी राजनेता या पार्टी अम्बेडकर के धर्म परिवर्तन के विषय में कुछ नहीं बोलते, परंतु 6 दिसंबर को उनको श्रद्धांजलि देने वाले राजनेता अथवा पार्टियो का तांता सा लग जाता है। इससे हमारे राजनेताओं के सरोकारों का पता चलता हैं कि वो कोई भी ऐसी चीज़ नहीं बोलते जिससे उनके वोट बैंक (हिन्दू समाज) पर असर पड़े। वो समाज में फैली जातिगत विषमता के संदर्भ में चुप रहना ही पसंद करते हैं। अगर हम सही मायनो में अम्बेडकर को श्रद्धांजलि देना चाहते है तो हमें उनके आदर्शो पर चलना चाहिए, उनकी लड़ाई को अपना समझ कर जातिगत व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठानी चाहिए। वास्तविक समाज से वैकल्पिक समाज की ओर बढ़ना चाहिए जिसमें स्वायत्ता, समानता अथवा भाईचारा की भावना मौजूद हो। 
जय हिन्द, जय भीम!

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