बिपिन बिहारी दुबे
सनातन धर्म में कार्तिक का महीना पावन तथा सबसे ज्यादा त्योहारों का होता है। हमारे बिहार में
यह और ख़ास इसलिए बन जाता है क्योंकि इस महीने में ही बिहार का सबसे लोकप्रिय पर्व
छठ आता है। हमारे
क्षेत्र के लोगों के लिए ये महिना और भी ख़ास होता था। जब कार्तिक पूर्णिमा
के बाद मेरे गाँव से 4 किलोमीटर दूर अर्जुनपुर में चटनिया मेला लगता था। जो आश्विन मास के
अमावस(पीड़िया) तक चलता था। (पीड़िया बिहार और पूर्वांचल क्षेत्र में बहनों
का त्योहार है. जिसमें सभी बहनें अपने भाई की सुरक्षा के लिए व्रत करती है।
यह भी लगभग एक महीना
की प्रक्रिया होती है। लेकिन इसकी
चर्चा कभी बाद में। ) इस मेले
के शुरू होने से पहले पास के ही सहियार में पशुओं का मेला भी लगता था। जिसका इंतज़ार सभी
लोग बहुत बेसब्री से इंतज़ार करते थे। अपनी
पुरानी गाय-भैंस को बेचकर नया लाना हो या नया ही खरीदना हो। हम बच्चों को इस
मेले से बहुत ज्यादा लगाव नहीं होता था। बस हम ये पता
लगाने में रहते थे कि इस बार मेले की सबसे गाय, भैंस, घोड़ा कितने का बिका? और ये
रिकॉर्ड अगले साल तक टूटेगा की नहीं? पशुओं का मेला 3 दिन तक चलता था। उसके तुरंत बाद ‘चटनिया
मेला’ शुरू होता था। यह मेला अपने
जलेबी के लिए बहुत मशहूर था। इस मेले
की गुड़हिया जलेबी का स्वाद कहीं और की जलेबी में नहीं था। मेरी दादी कहती थी
कि ‘’पहले जलेबी सिर्फ इस मेले में ही मिलती थी। क्योंकि तब हमारे
गाँव के आसपास में कोई बाजार नहीं था।’’ मेले के दिनों
में आने वाले रिश्तेदार भी जलेबी ही लाते थे। जलेबी के अलावा
छोला और फूचका(गोल गप्पा) इस मेले के आकर्षण थे। हम बच्चों के लिए
चरखी वाला, नाव वाला, हेलिकॉप्टर वाला, आदि झूले के साथ-साथ नाग-नागिन का खेल,
जादू वाला, मौत का कुआं आदि रिझाने की सामग्री मौजूद हुआ करती थी। कुछ साल बाद
वीसीआर के माध्यम से सिनेमा दिखाया जाने लगा। टेंट के अन्दर जो
सिनेमा चलता था उसकी एक रंगीन(मार-धाड़ और एक्शन से भरपूर) तस्वीर दरवाजे पर लगी
रहती थी। मेरे कुछ
दोस्तों को सिनेमा देखना बहुत पसंद था। कभी-कभी मैं भी
सिनेमा देखने जाता था। मुझे
मार-धाड़ वाली फिल्में बहुत ज्यादा पसंद नहीं थी।
नोट- उस समय के फोटो उपलब्ध नहीं होने के कारण फोटो के लिए google का सहारा लिया है.
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