संतोष कुमार ..
भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश होने का गौरव प्राप्त है, और क्यों न हों जब चार-चार प्रहरी इसके हिफाजत में तैनात हों. परन्तु खतरा तब मंडराने लगता है जब इसके प्रहरी पूर्वाग्रह के शिकार होने लगते हैं. भारत एक बड़ी आबादी वाला देश है. इस देश की आबादी एक जैसी नहीं है. हर क्षेत्र की अपनी-अपनी प्रासंगिकतायें है. हर धर्म की अपनी मान्यताएं हैं तो हर जाती की अपनी अस्मिता है. इस देश की सीमाओं पर अलग-अलग तरह कि चुनौतियाँ हैं. इस विशाल विविधता को संजोने के लिए ही देश जम्हूरियत कायम है.
परन्तु ये विविधताएँ केवल गणतंत्र दिवस के अवसर पर झांकी के रूप में प्रस्तुत कि जाती है. उस दिन दूरदर्शन पर अपनी वैभवशाली संस्कृति को देखकर मन प्रसन्न हो जाता है. दुर्भाग्य से उस दिन भी बांकी के “देश के सबसे अधिक देखे जाने वाले चैनलों” के लिए केवल वह न्यूज ही होता है. बांकी के 364 दिन हमारे आँखों के सामने घूमती रहती है दिल्ली, मुंबई और वे सौभाग्यशाली प्रदेश जहाँ समाजवाद के दत्तक पिता ने कुछ नया कारनामा कर दिया हो, या वो दुर्भाग्यशाली नगर जहाँ कोई दंगा या दुर्घटना हुई हो.
तो प्रश्न उठता है की लोकतंत्र का आईना कहा जाने वाला “मीडिया” का लोकतांत्रिकरण क्यों नहीं हो पाया ? 1990 के बाद देश के सभी महत्वपूर्ण संस्थानों का स्वरूप बदला लेकिन मीडिया आज भी “लुटियन जोन” की खाक क्यों छान रहा है ?
यह स्वाभाविक है की अधिकांश “खबरें” देश की राजधानी में बनती है या बनाई जाती है लेकिन “खबरें” क्या होंगी और क्या नहीं यह भी तो महत्वपूर्ण है. अगर आप थोड़ी सी छान-बीन करें तो पता लग जायेगा कि सभी मीडिया संस्थानों के चाहे वो हिन्दी के हों या अंग्रेजी के, इलेक्ट्रोनिक मीडिया हो या प्रिंट सबकी संपादकीय लगभग एक जैसी होती हैं. एक ही खबर को बार-बार अलग-अलग फोर्मेट में दिखाया जाता है. लेकिन उनकी खबर कोई नहीं लेता जिसके बिना यह हिंदुस्तान अधूरा है . भारत एक कृषि प्रधान देश है. 70% से अधिक आबादी गाँवों में रहती है, लेकिन क्या मजाल किसी मीडिया का जो उनकी भी सुधी ले ले.
बाहर से बेखौफ दिखने वाला मीडिया वस्तुतः अन्दर से डरा हुआ है. यह उन दो तिहाई लोगों की बात कहने से कतराता है जो अपने क्षेत्रिय अस्मिता को ज्यादा तवज्जो देते हैं. यह बाहुबली समाज की वकालत तो करता है परन्तु वंचितों को ख़बरों में आने से वंचित रखता है. अभिव्यक्ति की आजादी का सबसे नायब चेहरा माना जाता है वह उपेक्षितों की आवाज ही नहीं सुनना चाहता. इसका कारण यह है कि इसकी कमान कुछ सिद्धहस्त लोगों के हाथों में है जो मीडिया में उन वंचितों को स्थान नहीं देना चाहते क्यों की वह अच्छा कंज्यूमर नहीं है. यही कारण है की मीडिया में साफ्ट न्यूज का चलन बढ़ा है. क्रिकेटरों की पत्नियों के किस्से तो दिखाए और नुनाए जाते हैं पर किसानों की बदहाली की खबर कोई नहीं दिखता और नहीं छपता है.
मीडिया की सबसे बड़ी पूंजी है विश्वास. जब तक भारतीय मीडिया अपने कंटेंट में, अपने सवाल में विविधता नहीं लाएगा, वह विश्वास प्राप्त करना मुमकिन नहीं हो पायेगा. यह देश विभिन्नताओं और अलग-अलग विशिष्टताओं से लबरेज है. हमारी विविधताओं में अद्भुत एकता है. इसका बहुरंगी चेहरा हमारी राष्ट्रीयता को बढ़ावा देता है. मीडिया अगर इस चेहरे को नजर-अंदाज करेगा और सब कुछ दिल्ली और मुंबई के चश्मे से देखेगा तो देश-प्रदेश की खबरों के साथ न्याय नहीं हो सकेगा. निःसंदेह मीडिया के कॉर्पोरेटीकरण के दौर में यह खतरा और बढ़ गया है. विकास के दौर में पीछे छूटे लोगों और विभिन्न अस्मिताओं के प्रति मीडिया का यह रवैया निराशा जनक है.
10 दिसंबर 2014 को प्रकाशित |
बदलाव जागरुकता से आयेगी ,जो हमलोग कर रहे हैं। और ये शानदार लेख ....
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