Sunday, 23 November 2014

सिनेमा से गायब होते गाँव...


 धीरज कुमार (किरोड़ीमल कॉलेज)....
भारत देश के लिए सिनेमा और राजनीति हमेशा से ही बड़ा ही दिलचस्प विषय रहा है और दोनों में जनाधार मायने रखती है. जनता अगर चाहे तो किसी भी फिल्म को तीन से चार दिन में हिट भी करा सकती है और फ्लॉप भी. किसी भी फिल्म के हिट या फ्लॉप होने की संभावना उस फिल्म के विषयवस्तु से की जाती है. एक जमाना था जब फिल्मों में गाँव की पृष्ठभूमि से आये लेखकों ने बहुत सारी फिल्मों की पटकथाएं लिखीं और फिल्मों में गाँवों की जीवन.शैली का उत्कृष्ट तरीके से चरित्र.चित्रण किया था.  मदर इंडिया, दो बीघा जमीन जैसी गाँव पर आधारित सर्वश्रेष्ठ फिल्मों की रचना सिनेमा के स्वर्णिम काल में हुई थी. उस समय देश के ठेठपन को बखूबी दर्शाया जाता था. आज के दौर में यह सिनेमा  से धीरे.धीरे गायब होते जा रही है.
सिनेमा हॉल में बैठा दर्शक देश कम विदेशी स्थलों को ज्यादा देखता है. फिल्मों में जमीनी समस्याएं कम, काल्पनिक प्रेम और मौज.मस्ती की रचना ज्यादा की जाती है. सिनेमा का एक मात्र उदेश्य मनोरंजन नहीं है. सिनेमा अगर समाज का आईना है तो उसे देश में फैली समस्याएँ और उनके निवारण का भी दर्शन कराना चाहिए. आज भी भारत की लगभग 60% आबादी गाँवों में अपना गुजारा करती है. तो सिनेमा में गाँव का प्रतिनिधित्व बहुत आवश्यक है. आज के सिनेमा से दर्शक मनोरंजन तो भरपूर करते हैं लेकिन अपनत्व की भावना खत्म होती जा रही है. सिनेमा में विषय, स्थान, संगीत आदि सभी विदेशी हो चले है. आज सिनेमा हॉल में किसी भी दृश्य पर दर्शक रोता हुआ नहीं मिलेगा क्योंकि उन दृश्यों में भावनाएं डालने में फिल्मकार असमर्थ हो चले है. आज सिनेमा हॉल में सिक्के नहीं उछाले जाते, सिनेमा हॉल में किसी भी गाने पर डांस करते हुए दर्शक नहीं मिलेंगे. यह सब क्रियाकलाप उस समय होता था जब गानों में ऐसा माधुर्य होता था कि दर्शक अपने आप को रोक नहीं पाते थेए दृश्यों में ऐसी पीड़ा होती थी कि
आसूओं को रोका नहीं जा सकता था. यह सब सम्भव इसलिए था क्योंकि उस दौर की फिल्मों में विषयवस्तु से लेकर संगीत तक सब कुछ देशी होता था. दर्शक इन सबसे बहुत लगाव और अपनापन महसूस करते थे. फिल्मों में उनके समाज के दर्द के साथ.साथ गंवई मनोरंजन की भी पेशकश होती थी. आज सामान्य दर्शक का आधा समय तो फिल्म का विषय समझने में बीत जाता है, तो वह मनोरंजन कब करे! गानों में पाश्चात्य का प्रभाव है, तो दर्शकों की इंद्रियाँ इजाजत नहीं देती नाचने की. सिनेमा में गाँवो और आम नागरिकों के इच्छा का भी ध्यान देना जरूरी है. हमारे सिनेमा को देसी जनता ने खींचकर यहाँ तक पहुँचाया है, आज उनसे सम्बंधित विषय ही नहीं है. सिनेमा को काल्पनिकता का आकाश छोड़कर यथार्थ के धरातल पर रहना चाहिए.

1 comment:

  1. समय की मार ,सब पर पड़ी है ,लेकिन अच्छे शब्दों मे लिख गया है ,

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