अमन आकाश
माल-ए-मुफ़्त दबा कर खा,
लेकिन यार चबा कर खा।
बदहज़मी हो सकती है,
पहला माल पचा कर खा।
ऊपर वाला देखे है,
तोहफ़े उसे चढ़ा कर खा।
कहीं ज़मीर न जग जाए,
ख़ुद से नज़र चुरा कर खा।
नहीं पता दिन कितने हैं,
फिर-फिर खा, खा-खा कर खा।
फिर-फिर खा, खा-खा कर खा।
हिंदी के ग़ज़लकार एवं शायर रवि पाराशर की ये पंक्तियां देश के हर तंत्र को अपने आगोश में ले लेती हैं। रवि अपने रंग, अपने ढंग के शायर हैं जिनके शेर देर तक और दूर तक हमसे अपना रिश्ता बनाए रखते हैं। कड़वी सच्चाईयों से अवगत कराती इन पंक्तियों ने श्रोताओं की जमकर सराहना और तालियां बटोरीं।
रवि पाराशर अपनी ग़ज़लों का पाठ, हिन्दी की महत्त्वपूर्ण रचनाशीलता को अनौपचारिक मंच देने के उद्देश्य से गठित साहित्यिक संस्था ‘हुत’ की ओर से आयोजित एकल ग़ज़ल-पाठ कार्यक्रम के दौरान, प्रस्तुत कर रहे थे। ‘हुत’ की तरफ़ से यह पाँचवाँ आयोजन रविवार, 07 दिसम्बर, 2014 को सायं 4.00 बजे से एनडीएमसी पार्क, नियर तिलक ब्रिज रेलवे स्टेशन, मंडी हाउस, नई दिल्ली में किया गया था।
अपने ग़ज़ल-पाठ में रवि पाराशर ने---
‘ख़र्च, कमाई के हिसाब वाला घर है; मुझको लगता है रिश्तों का दफ़्तर है।’...
‘गोश्त भी मेरा, थालियाँ मैं ही; पेट भी मेरा, रोटियाँ मैं ही।
मेरा ही ख़ौफ़, धमकियाँ मैं ही; मेरी ही पीठ, थपकियाँ मैं ही।’...
‘ढूँढ़ दीजै ना, ज़रा ग़ायब हूँ; आपके आसपास शायद हूँ।’...
‘आज सोचा है ! अगर कल जाता; तो बहुत दूर तक निकल जाता।’...
‘रोटी थी उसके सामने, पर हाथ नहीं थे; पानी था, मगर सामने टूटा गिलास था।’...
‘नंगे ने भी मना किया; मैली कितनी खद्दर, देखा।’--- आदि कई ग़ज़लें प्रस्तुत कीं।
रवि पाराशर के ठेठ मन-मिज़ाज की ग़ज़लों को श्रोताओं ने ख़ूब सराहा... वहीं बातचीत के दौरान महत्त्वपूर्ण युवा कवि आर. चेतन क्रान्ति ने विचार व्यक्त किया कि रवि की ग़ज़लें नई ज़मीन की ग़ज़लें हैं। ये ग़ज़लें अपने शब्द, बिम्ब, प्रतीक, लय, छंदबद्धता और किसी-किसी मिसरे के मुहावरे-सा व्यक्त होने से नवगीत का कोई नया रूप प्रतीत होती हैं। इन ग़ज़लों में ज़िन्दगी की कौंध है तो अँधेरे को भी पढ़ने की अपनी भाषा और दर्ज करने की अपनी अदाएगी। रवि की ग़ज़लों के रंग हमारे समय के वह रंग हैं जिनसे ज़िन्दगी को कला और कला को ज़िन्दगी मिलती है। कार्यक्रम का संचालन कर रहे युवा कवि कुमार वीरेन्द्र ने कहा कि रवि पाराशर की ग़ज़लें हिन्दी के जनशायर अदम गोंडवी की परम्परा को आगे बढ़ाती हैं। शास्त्रीयता की जटिलता और जटिलता की शास्त्रीयता से परे ये ग़ज़लें जन और उसकी अभिव्यक्ति की एक नई पहचान हैं। इन ग़ज़लों में आवारगी, फक्कड़पन की रचनात्मकता अपनी सहजता और सरलता में विविधवर्णी आयामों को गढ़ती-रचती है। रवि पाराशर की ग़ज़लें किताबों में नही ज़िन्दगी में दर्ज होनेवाली ग़ज़लें हैं। ये जितनी शहर की हैं उतनी ही गाँव की। ये आसमान की नहीं, ज़मीन की चाह में ज़मीन की ग़ज़लें हैं। इस एकल ग़ज़ल-पाठ के आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार चन्द्रकान्त चन्द्रमौली, युवा कवि इरेन्द्र बबुअवा, कथाकार-पत्रकार सुशील पांडेय, आशुकवि अमन आकाश, विद्या
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