दीपक मिश्रा
हम कटे थे युग से,एकांत वन में मन शांत था;
अभिशप्त थे
वन में रमते बोधिसत्व थे।
न शिकवा , न गिला
बस कटे थे।
शिकवा तुम्हें
'क्यों छंटे हो?'
ठीक माना, पूछ बैठा-
'क्यों बंटे हो?'
नागवार तुम्हें।
सुलगा दिया बारूदें पसलियों में।
बारूदों की चिमनियाँ जिन सिसकियों में।
कलम हुए हम,
कलम टूटी है,
कलम चलेंगी।
सूर्य अभिव्यक्ति रश्मियाँ
चंद्राभिव्यक्ति चाँदनी,
रोये ज़ार-ज़ार।
घृणा भी लज्जित हुआ,
द्वेष शर्मशार।
अभी व्यक्ति की अभिव्यक्ति
हे कलमी! ज्ञेय-
बलिदानें उमंग भरती हैं।
ज़ख्म शेष
टपक-टपक-टपक जिनसे
बूँद कुछ;
नील वर्णी ।
कागजों पर
छिटक-छिटक-छिटक फैलती,
औ बोलती-
अब न मिटूंगी।
मिटानें की हर कोशिशें
रंग जायेगी मेरे रंग में।
मत भूलना,
जाकर इसे, फिर तौलना, कि-
बलिदानें उमंग भरती हैं।
No comments:
Post a Comment