हर्ष भारद्वाज
१९६७ के बाद हुए बड़े दंगे कुल ५८। ४७ स्थानों पर १० दक्षिण भारत में, १२ पूर्वी हिस्से में, १६ पश्चिमी क्षेत्र में और २० उत्तर भारत में। अब आधुनिक दंगो की प्रकृति बदल चुकी है, अब दंगे अकस्मात् नहीं बल्कि सोची-समझी साजिश के तहत होते हैं। थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद दंगे होते चले आए हैं क्योंकि उन्हें रोकने की कोशिश नहीं हुई। सभी अच्छी तरह जानते है कि दंगों में नुकसान एक का नहीं होता फिर भी लोग खुद को सांप्रदायिक उन्माद में बहने से रोक नहीं पाते। पहले दंगे सड़कों तक सीमित थे। किसी छोटे हादसे को लेकर उत्तेजित होकर लोग सड़कों पर आ जाते थे और मारा-मारी शुरू कर देते थे। चूँकि दंगे सड़कों तक ही सीमित रहते थे इसलिए उन पर काबू पाना भी आसान था लेकिन वर्त्तमान समय में ऐसा नहीं है। दंगे की प्रवृत्ति और प्रकृति दोनों बदल चुकी है। दरअसल गलती यही है कि हम अपने अंदर नहीं झांकते। हिंसा के नाजुक दौर में हम अपमी जिम्मेदारियों को निभाने की जगह आग में घी डालते आ रहे हैं, जिसमें सब कुछ स्वाहा होता जा रहा है। क्या चंद सांप्रदायिक तत्त्व हमारी सोच और समझ को प्रभावित कर सकते हैं? साम्प्रदायिकता की वजह से विभाजित होने वाला भारत शायद दुनिया का अकेला मुल्क़ है। आजादी के काफी पहले ही इस विषबेल के बीज पड़ गए थे। देश में पहली बड़ी सांप्रदायिक दंगे की घटना अगस्त १८९३ में मुंबई में हुई, जिसमें करीब १०० बेकसूर मारे गए और ८०० घायल हुए। १९२१ और १९४० के बीच हालत विषम रहे। मसलन १९२६ में कोलकाता में मुहर्रम के दौरान हुए दंगे में २८ लोग मारे गए। विभाजन के तत्काल बाद १९४८ में भीषण दंगे हुए बंगाल में नोआखली और बिहार के कई गांव उस दौर में सर्वाधिक प्रभावित हुए। भारत में हिन्दू और मुसलमानों के बीच पहला बड़ा दंगा १९६१ में जबलपुर में हुआ। १९६९ में अहमदाबाद दंगा, १९८४ में हुआ सिख दंगा, १९८७ में हुए मेरठ दंगे, १९८९ में भागलपुर दंगा, १९९२ में हुआ मुंबई दंगा, गुजरात में २००२ में हुए दंगे, मुजफ्फरनगर २०१३ के दंगे, हाल ही में हुआ दिल्ली का त्रिलोकपुरी दंगा इस बात का सबूत है कि यह सांप्रदायिक भेदभाव का ही नतीजा है। अभी भी वक़्त है इन दंगो से निजात पाने का। इसके लिए सरकार को ईमानदार होना होगा, समाज के उस बड़े वर्ग को आगे आना पड़ेगा जो मुल्क़ का भला तो सोचते है लेकिन कश्मकश में फँसकर पीछे खड़ा रह जाता है, तभी थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद हो रहे दंगो का खात्मा हो सकेगा। सांप्रदायिक दंगो को देखकर और सुनकर रूह काँप जाती है। आखिर क्यों लोग एक-दूसरे का खून में बहाने लग जाते हैं? वो मासूम बच्चे जिन्हें सब एक जैसा नजर आता है, उनके अंदर कोई भेदभाव नहीं होता, वो भी सांप्रदायिक दंगो की भेट चढ़ जाते हैं।
आजादी और देश के विभाजन के इतने बरस बाद भी हमारे शरीर में काफी सांप्रदायिक जहर बचा हुआ है और कभी-कभी विकराल रूप धारण कर लेता है। हमेशा ही जब भी सांप्रदायिक दंगे होते है राजनीतिक दल एक-दूसरे को दोष देते हैं। हम आम आदमी हैं जो रोजमर्रा की जिंदगी रोजीरोटी की जद्दोजहद में बिताता है, जो पारम्परिक सांप्रदायिक भाईचारे के निर्वाह के लिए तैयार है तो कोई कैसे हमें बहला फुसला सकता है! हमें अपनी समझ से भी काम लेनी चाहिए आखिर कब तक हम एक-दूसरे की जान लेते रहेंगे?
एक-दूसरे से भाईचारे की प्रवृत्ति रखें और ज्यादा से ज्यादा यही प्रयास करं कि हम पूरी क़ौम को एकता की डोर में बांध सके। जिससे कोई भी सांप्रदायिक दंगा कभी किसी को प्रभावित न कर सके।
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