Tuesday, 3 March 2015

उपभोगतावाद के दौर में मीडिया

नीलम रावत 
संजय दिवेदी की पुस्तक “मीडिया, भूमंडलीकरण और समाज” पत्रकारिता के बदलते स्वरूप को केंद्र में रख कर लिखी गयी है। इस पुस्तक में कुल ४३ लेख संकलित है जो पत्रकारिता से संबंधित  है। सबसे पहले संपादक संजय दिवेदी ने संपादकीय ‘इस मीडियामय समय में’ उन्होने पत्रकारिता के बजाय मीडिया शब्द के बढ़ते  चलन की ओर इशारा किया  है। आज हर व्यक्ति किसी न किसी मीडिया की गिरफ्त में है। परंपरागत संचार माध्यमों से आगे, आज रेडियो, अखबार, इंटरनेट ने हर व्यक्ति तक पहुँच बना ली है। इस संपादकीय में उन्होने प्रिंट मीडिया के साथ-साथ फिल्म जगत पर भी प्रकाश  डाला  है। जिसमे उन्होने प्रिंट मीडिया के घटते पाठक तथा फिल्मों में नग्नता के बढ़ते चलन की ओर इशारा किया है। उनके लेख ‘कहाँ से आएंगे अच्छे पत्रकार’ में उन्होने मीडिया के बदलते दौर की बात की है जहां पत्रकारिता मिशन के बजाय वैश्वीकरण या बाजारवाद से ज्यादा प्रभावित है। चौथा स्तंभ कहा जाने वाला मीडिया आज बाजारवाद की भेट चढ़ चुका है। फिल्मी दुनिया की तरह मीडिया की अपनी चमकीली दुनिया स्थापित होने से जुझारू पत्रकार ढूंढने में शायद ही मदद मिले। आज वही पत्रकार मीडिया हाउस के लिए व्यवसाय कर रहा है। बड़े पत्रकार करोड़ो में खेल रहे है वही छोटे पत्रकार बंधुआ मजदूर की तरह काम कर रहे है। देश में कही युवा पत्रकार अपने कैरियर की शुरुआत मामूली सैलरी से करते है। आज मीडिया हाउस को पत्रकार नहीं ऐसा व्यक्ति चाहिए जो उसके लिए व्यवसाय करे। हर साल हजारो छात्र पत्रकारिता की पढ़ाई करते है तथा नौकरी की तलाश में मीडिया हाउस के चक्कर लगाते है। कई जुगाड़ से नौकरी पा लेते है तथा जिन्हे नहीं मिल पाती उनके मन में मीडिया को लेकर गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। ऐसा नहीं है की अच्छे पत्रकारो की कमी है बल्कि उन्हे मौका नहीं मिल पाता। डॉक्टर सुभद्रा राठौर द्वारा लिखा लेख ‘आखिर इस हिन्दी का क्या करे’ में हिन्दी भाषा के खत्म होते रूप को बताया है। आज शुद्ध हिन्दी की जगह हिंगलिश ने ले ली है। आज हिंगलिश भाषियों के लिए प्रतिष्ठा, स्टेटस, सिम्बल से कही ज्यादा अनिवार्यता बन गयी है। आज किसी भी हिन्दी भाषा-भाषी व्यक्ति को पूरे आत्मविश्वास के साथ नि:संकोच हिन्दी का अशुद्ध व्यवहार करते देख सकते है। यहाँ एक ओर  हम अपनी भाषा खो रहे है वही दूसरी और अपनी आने वाली पीढ़ी को इससे वंचित कर रहे है।
एक अन्य लेख ‘मीडिया में दिख रहा है किस औरत का चेहरा’ में उन्होने समाज में स्त्री की वास्तविक स्थिति को बखूबी दर्शाया है। आज औरत की देह मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। एक ओर  मीडिया ने आत्मविश्वास तथा सकारात्मकता से भरी औरत को दिखाया है वही महिला के एक सेक्स ऑब्जेक्ट के रूप में पेश किया है। आज मीडिया खबरों के लिए नहीं अपितु ग्लैमर के लिए ज्यादा मशहूर हो चला है। सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते है। एक आकडे के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार पाँच सालो में पाँच अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा। 1949 में सीमोन-द-बोवुआर ने अपनी किताब’द सेकंड सेक्स’ में जिक्र किया है की ‘औरत पैदा नहीं होती बल्कि बनाई जाती है’ उनकी बात आज भी प्रासंगिक है क्यूंकी हमारे तमाम भौतिक विकास के बावजूद हम मानसिक और सामाजिक स्तर पर स्त्री को वह जगह नहीं दे पाये है जिसकी वह हकदार है। मीता उज्जैन द्वारा लिखित लेख “मीडिया में स्त्री का चेहरा है, उसके सवाल नहीं” में बताया की स्त्री को कभी भी उसके गुण, प्रतिभा को ध्यान में रखकर परिभाषित नहीं किया गया बल्कि उपयोगिता को ध्यान में रखकर किया गया जो की पित्रसतात्मक ढांचे की देन है और आज भी स्थिति जस की तस है। 19वी सदी में जब स्त्री आंदोलनो की शुरुआत हुई तथा स्त्री शिक्षा, सती प्रथा की समस्याओ का निवारण किया गया तब महिलाओ को सम्मान मिला। 8 मार्च,1975 में भारत में पहली बार अंतरराष्ट्रिय  महिला दिवस मनाया गया जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र से हुई। अस्सी का दशक एक नयी औरत गढ़ने का समय था जो कम रूढ़िवादी थी और जो अपनी पहचान को लेकर लगातार प्रयासरत थी। 90  का दशक भूमंडलीकरण तथा उदारीकरण का दौर था जहां महिलाओ के आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता दोनों बढ़ते दिख रहे थे। इस चकाचौंध भरी दुनिया में अंधेरा भी कायम था जहां महिलाए महानगरो में भी सुरक्षित नहीं थी। उदारीकरण ने जहां महिलाओ को नए अवसर दिए वही उनके शौषण के रास्ते खोल दिए। बलात्कार, यौन-उत्पीड़न जैसे मामले कार्यस्थल से आए। बाजारवाद के इस दौर ने मीडिया का स्वरूप पूरी तरह बदल दिया। महिला को मीडिया एक रात में चर्चित चेहरा बनाने वाला जादूगर लगा और मीडिया को महिला उपभोग की वस्तु की अलावा कुछ और नहीं लगी। मीडिया महिलाओ के चेहरो से सुशोभित है, मगर महिला मुद्दो से मुह चुराता है। औरतों के सवाल आज भी जिंदा है परंतु संगठन खामोश है और मीडिया गैरजरूरी मुद्दो को स्थापित करने में लगा है।
वही अन्य लेख’उदारीकरण ने बदला बॉलीवुड का चेहरा-मोहरा’ में बॉलीवुड के बदलते स्वरूप की बात की है। आज फिल्मों में कहानी का होना जरूरी नहीं अपितु 100 करोड़ क्लब में शामिल होना जरूरी है। आर्थिक उदारीकरण आने के बाद भी फिल्मों में जातीय पहचान सामने आती है। हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री को इससे फर्क नहीं पड़ता। उपभोगतावाद का दौर है और इस दौर में अभी भी कमाई ही परम सत्य है। संजय दिवेदी की पुस्तक मीडिया, भूमंडलीकरण और समाज हमे 20-22 सालो में मीडिया में आए परिवर्तन और उसकी दशा दिशा के संदर्भ में बताती है।

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