बिपिन बिहारी दुबे
कल तक जो “मेक इन इंडिया” की बात करते थे वो ही आज “बैन इन इंडिया” पर उतर आए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय की चर्चित नाट्य समूह ‘अंकुर’ को उसकी नाट्य प्रस्तुति से रोकने का प्रयत्न किया जा रहा है। इंडियाज डॉटर पर प्रतिबंध लगाना, केरल के लेखक मुरुगन का एक साहित्यकार के रूप में मौत का ऐलान करना, वर्तमान समय में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मँडरा रहे खतरे का अहसास करा रहा है। बांग्लादेश में ब्लॉग लेखक अविजीत रॉय को सरेआम सड़क पर काट दिया जाता है। भारत ही नहीं दुनिया भर में होने वाली घटनाएं चाहे वो शार्ली हेब्दो की हो या इराक में लड़की को फाँसी दिये जाने की हर जगह इस खतरे को महसूस किया जा सकता है। ऐसे में इस खतरे से बचने का उपाय तलाशना भी आवश्यक है। सामाजिक और सांस्कृतिक नैतिकता के नाम पर किसी भी रचना, फिल्म, पत्रिका को प्रतिबंधित करने की एक आम धारणा बनती जा रही है। अगर कोई रचना, फिल्म, पत्रिका समाज पर बुरा प्रभाव डालती भी है तो इसके आकलन का अधिकार जनता के हाथ में दिया जाना चाहिये न कि किसी वर्ग विशेष के हाथ में। शार्ली हेब्दो पत्रिका किसी धर्म के लोगों की भावनाएं आहत करती है इसलिए उनके साथ हुई बर्बरता उचित है या इस घटना के खिलाफ सड़कों पर उतरे लाखों लोग जिनमें ज्यादातर उसी धर्म विशेष से जुड़े है वो उचित? मुरुगन का अपने साहित्य में समाज की रूढ़िवादिता को उजागर करना उचित है या वो समाज जो उस रुढ़िवादिता से बाहर निकलना नहीं चाहता? इंडियाज डॉटर पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है कि उसमें एक बलात्कारी का निंदनीय बयान दिखाया गया है जो समाज पर गलत प्रभाव डालेगा। इसी समाज में मंत्री, सांसद, धर्मगुरु इस तरह की बयानबाजी सरेआम करते है तो उनके मुँह पर पट्टा नहीं लगता। सबसे महत्वपूर्ण यह कि पितृसत्तात्मक समाज में जब हर तीसरा-चौथा व्यक्ति इस तरह की बातें करता है तो क्या समाज की भावनाएँ आहत नहीं होती?
एक पक्ष यह भी स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आपको महात्मा गाँधी या मदर टेरेसा का अपमान करने का अधिकार नहीं देता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार आपको किसी धर्म, क्षेत्र आदि के लोगों की भावनाएं आहत करने का अधिकार नहीं देता। अगर राज्य की दृष्टि से देखें तो आपके अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता किसी राज्य के संप्रभुता, सुरक्षा से बढ़कर नहीं हो सकता। स्वतंत्रता के नाम पर आप किसी के मान-सम्मान को ठेस नहीं पहुँचा सकते।
एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी है कि सामाजिक, सांस्कृतिक नैतिकता का पैमाना क्या हो और इसको तय कौन करे? आदि काल से ही समाज में नैतिकता को तय करने का अधिकार दबंग लोगों के हाथों में रहा है। गौतम ऋषि अहल्या को बिना सच जाने शाप दे देते हैं क्योंकि नैतिकता तय करने का अधिकार उनके हाथ में था। स्त्रियों को सबसे ज्यादा नियम-कानून के बंदिशों में बांधा जाता है क्योंकि नियम तय करने का अधिकार हमेशा से पुरुषवादी ताकतों में रहा है। दलितों को समाज से तिरष्कृत करके बाहर निकाल दिया जाता है क्योंकि नैतिकता तय करने का अधिकार सवर्णों के हाथ में था।
आज भी समाज का कुछ हिस्सा उस विचारधारा से ऊपर उठना नहीं चाहता क्योंकि उसे अपने अस्तित्त्व पर खतरा महसूस होने लगता है। आज भी पंचायतें लड़कियों को जींस न पहनने, मोबाईल न रखने, चाउमिन न खाने का फरमान सुनाता है। हद तो तब होती है जब लड़कियों को पुस्तकालयों तक में न जाने का फतवा जारी कर दिया जाता है। यानि कि आज भी नैतिकता के नाम पर समाज लोगों से खाने, पहनने, पढ़ने आदि पर प्रतिबंध लगाना चाहता है। राजनीति में सत्तापक्ष के बयान से विपक्ष आहत होता है तो विपक्ष से सत्ता। ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर नियम लगाने वाले लोग कौन है और इसके पीछे उनका मकसद क्या है इसको आसानी से समझा जा सकता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बदौलत देश में इरोम शर्मिला, अन्ना हजारे, मेधा पाटेकर जैसे चेहरे नजर आते है। जो आम नागरिकों के हक के खातिर आवाज उठाते है। पूँजीवाद के बढ़ते इस दौर में जब किसानों का जल, जंगल, जमीन छीनकर कुछ विशेष लोगों के हाथों में दिया जा रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ही एक मात्र हथियार है जिसके बदौलत लोगों अपनी आवाज उठा सकते है। ऐसे में इन आवाजों को दबाने के उदेश्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को छिनने का प्रयत्न किया जा रहा है। मीडिया से कुछ न्याय की उम्मीद नजर आ रही थी पर पूँजीवादी ताकतों ने सबसे पहले उसे अपना ग्रास बनाया। सोशल मीडिया पर भी पेड वर्कर्स की सहायता से ट्रेंड बनाने का प्रयत्न किया जा रहा है।
ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी भी तरह का नियम कितना उचित है या अनुचित? यह तय करने का अधिकार सिर्फ और सिर्फ समाज के आम नागरिकों पर छोड़ देना ज्यादा सही है। क्योंकि उसमें ताकत है की वो सत्ता तक को हिला दे। नहीं तो मुठ्ठी भर लोगों के हाथ में सब कुछ छोड़ देने का खामियाजा कई अविजीत रॉय की जान दे कर भुगतना पड़ेगा और लोग हमेशा की तरह मूक दर्शक बने रहेंगे।
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