अंग्रेज़ी के लोकप्रिय उपन्यासकार
चेतन भगत ने हिंदी को लोकप्रिय बनाने के लिए देवनागरी छोड़कर रोमन में
लिखने का सुझाव दिया है। इस सुझाव के पक्ष में उनके पास कई जाने-पहचाने और
सशक्त दिखने वाले तर्क भी हैं। वे याद दिला रहे हैं कि मोबाइल पर हिंदी के
एसएमएस रोमन में ही भेजे जा रहे हैं। हालांकि ऐसे मोबाइल अब आम हैं जिनमें
हिंदी देवनागरी में ही लिखी जा सकती है, लेकिन इसके लिए भी ज्यादातर रोमन
के ही कीपैड का इस्तेमाल हो रहा है। चेतन यह भी बता रहे हैं कि जन माध्यमों
में रोमन में लिखी हिंदी स्वीकार की जा रही है। कई विज्ञापनों में यह
हिंदी दिखाई पड़ती है। यहां तक कि फिल्मों की पटकथा भी रोमन हिंदी में ही
लिखी जा रही है। इसी तर्क को और विस्तार देते हुए वे यह भी याद दिलाते हैं
कि उर्दू के कई शायरों को हम उनकी मूल फ़ारसी लिपि में नहीं, देवनागरी में
ही पढ़ते रहे हैं। इसके बाद वह यह चारा भी फेंकते हैं कि रोमन में लिखने से
हिंदी उस अंग्रेज़ी के ज़्यादा क़रीब आएगी, जिसका राष्ट्रीय और
अंतरराष्ट्रीय बोलबाला असंदिग्ध है और जिसमें भविष्य है।
चेतन भगत
रोमन में हिंदी लिखने का सुझाव देने वाले पहले लेखक नहीं हैं। कुछ साल पहले
हिंदी के वरिष्ठ उपन्यासकार असगर वज़ाहत ने भी लगभग इन्हीं तर्कों के साथ
यही सुझाव दिया था। कुछ दशक पहले भाषाविद सुनीति कुमार चाटर्ज्यू ने भी
हिंदी को रोमन में लिखे जाने का विकल्प सुझाया था और यह भी कहा था कि हिंदी
को उसकी लैंगिक दुरूहता से मुक्ति दिलाई जानी चाहिए।
लेकिन हिंदी
को रोमन में लिखने के इस सुझाव की दो सीमाएं बहुत प्रत्यक्ष हैं। पहली बात
यह कि जैसे यह इस मान्यता से उपजा हुआ सुझाव है कि भाषा महज एक औजार है,
संवाद या संप्रेषण का ऐसा उपकरण, जिसे आप अपनी सहूलियत के हिसाब से बदल
सकते हैं। इसमें संदेह नहीं कि भाषा की एक भूमिका यह भी है- बल्कि सतह पर,
और सबसे प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाली भूमिका यही है, लेकिन जब हम इस पर
विचार करते हैं कि भाषा कहां से बनती और शक्ति प्राप्त करती है, तब अचानक
इस सुझाव की विडंबनाएं हमारे सामने खुलने लगती हैं। दरअसल चेतन भगत भूल
जाते हैं कि भाषा का वास्ता स्मृति और संस्कृति से भी होता है- हर शब्द के
पीछे एक गहरी स्मृति होती है, एक सरोकार होता है। जब हम किसी शब्द को उसकी
स्मृति और उसके सरोकार से वंचित कर देते हैं तो उसके अर्थ से भी वंचित कर
देते हैं। जिस मास मीडिया की चेतन भगत या दूसरे लोग दलील दे रहे हैं, वहां
एक ऐसी ही हिंदी लिखी जा रही है जो स्मृतिविपन्न है और इसलिए सरोकारविहीन।
वह एक अधकचरी हिंदी है जो उधार ली हुई सूचनाएं साझा करने के काम आ रही है।
हिंदी का यह रूप देखकर ही भगतों को यह कहने का हौसला और तर्क मिल रहा है कि
इससे तो रोमन में लिखी हिंदी भली जो कम से कम दूर तक पढ़ी जाएगी।
संकट यह है कि हिंदी में जब भी स्मृति या सरोकार की बात की जाती है, उसे तत्काल शुद्धतावाद के कठघरे में ला खड़ा किया जाता है, ऐसे हिंदीप्रेमियों की दलील मान लिया जाता है जो हिंदी में किसी बदलाव के हिमायती नहीं हैं। जबकि यह आम अनुभव है कि भाषाएं मेलजोल से ही बनती और समृद्ध होती हैं, शुद्धतावाद उनको मारता है। हिंदी भी दुनिया भर की भाषाओं के साथ इस मेलजोल से समृद्ध हुई है। उसके शब्द भंडार में कई बाहरी भाषाओं के शब्द इस तरह घुले-मिले हैं कि उनको अलग से पहचानना मुश्किल है। यह प्रक्रिया सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में कुछ ज़्यादा ही तेज़ हुई है। बेशक, इस रफ़्तार के पीछे दो और प्रक्रियाएं काम कर रही हैं- एक तरफ़ शहरी मध्यवर्गीय भारत शिक्षा के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को लगभग अपना चुका है और दूसरी तरफ भूमंडलीय बाज़ार अपने लोकप्रिय सांस्कृतिक-सामाजिक माध्यमों और आर्थिक हितों के साथ हमारे यहां बिल्कुल हमला कर चुका है। अंग्रेजी इस देश में महज एक भाषा नहीं है, विशेषाधिकार का प्रतीक भी है जिसके हिस्से में देश के सबसे ज़्यादा संसाधन हैं। ऐसी स्थिति में एक आत्महीनता में जी रही हिंदी यह आत्मविश्वास भी खो बैठी है कि वह पहले की तरह अंग्रेजी के शब्दों को अपने अभ्यास और अपनी प्रकृति के अनुकूल ढाल सकती है या उनके सटीक और स्वीकार्य अनुवाद गढ़ सकती है। अंग्रेजी अभिजात्य के लिए हिंदी में लिखने-बोलने की कोशिश एक हास्यास्पद और कुंठित सांस्कृतिक बोध की निशानी है जिसे ‘शुद्ध’ हिंदी का मतलब दफ़्तरों में शब्दकोशों के सहारे गढ़ी जा रही एक कृत्रिम और अपच्य हिंदी ही समझ में आता है- दुर्भाग्य से ज़्यादातर अंग्रेजी पृष्ठभूमि से आए और किन्हीं सिफ़ारिशों से विभागों में लग गए हिंदी अफ़सर और विश्वविद्यालयों में बैठे हिंदी प्राध्यापक उनकी इस समझ को अपने लेखन और अनुवादों से कुछ और मज़बूत करते हैं, कुछ और उदाहरण सुलभ कराते हैं।
इन सबके बीच जब कोई चेतन भगत बची-खुची हिंदी को रोमन में लिखे जाने की अपील करता है तो जैसे वह उस सांस्कृतिक हमले की पूर्णाहुति का आह्वान करता है जो अंद्रेजी को वर्चस्व को बिल्कुल अभेद्य बना डाले। सतह पर बहुत निर्दोष और जायज दिखने वाली मांग लेकिन इस प्रश्न से नहीं जूझती कि भाषा का उसकी लिपि से कोई नाभिनालबद्ध रिश्ता होता है या नहीं? भाषा की जो वाचिक परंपरा हमने विकसित की है और उसका जो लिखित रूप निर्धारित किया है, क्या उसमें बहुत कुछ ऐसा नहीं है जो लिपि बदलने के साथ बदल जाएगा? क्योंकि शब्द कागज पर लिखे जाने से पहले हमारी चेतना में लिखे जाते हैं और उन्हें पढते हुए उनके लिखित रूप से उनकी ध्वन्यात्मक अनुगूंजें हमारे भीतर बजती हैं। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारी छायावादी कविता रोमन में लिखी जाकर अपना वही प्रभाव कायम रखेगी जो हमारी नज़र के सामने उसकी देवनागरी प्रस्तुति पैदा करती है?
बेशक, दुनिया में ऐसी मिसालें रही हैं जब सत्ताओं ने भाषाओं की लिपियां बदली हैं। कमाल अता तुर्क ने टर्की में यह काम सफलतापूर्वक किया। लेकिन इस सफलता का वही इतिहास हमें मालूम है जो बाद में सुलभ रहा, या बच पाया। तुर्की को उसकी लिपि से काट कर रोमन में लिखे जाने की परेपरा ने वहां के समाज में जो ज़ख़्म पैदा किए होंगे, उसकी खरोंच से हम अनभिज्ञ हैं। संभव है, इस प्रक्रिया में बहुत सारी अभिव्यक्तियां हमेशा-हमेशा के लिए कुंद पड़ गई हों और बहुत सारी विरासत भी लापता हो गई हो। भाषाओं को जब उनकी लिपियों से वंचित किया जाता है तो क्या उनके भीतर ध्वनि और अर्थों की कुछ ऐसी उलझनें पैदा नहीं होतीं जो अंततः उन्हें अभिव्यक्ति के स्तर पर कमज़ोर करती हैं? यह सच है कि हम उर्दू की महान शायरी को देवनागरी में बड़ी सहजता से पढ़ लेते हैं लेकिन ग़ालिब और मीर या फ़ैज़ और फ़िराक़ अगर देवनागरी में लिखने बैठते तो क्या उसी सहजता से लिख पाते- इस तथ्य के बावजूद कि शेर लिखे नहीं कहे जाते हैं।
और क्या हिंदी जब रोमन में लिखी जाएगी तो एक भाषा के रूप में उसका वैशिष्ट्य बचा रहेगा? अपने लिंग संबंधी आग्रहों से पैदा होने वाली जटिलता के बावजूद हिंदी अपने व्याकरण के लिहाज से दुनिया की आधुनिक भाषाओं में किसी से पीछे नहीं है। उसका एक सुसंगत व्याकरण है जिसमें उच्चारण का आधार अंग्रेजी, उर्दू या किन्हीं भी दूसरी भाषाओं के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा वैज्ञानिक और सहज है। इस हिंदी को रोमन में लिखना शुरू करते हुए ही वह अपने व्याकरण, उच्चारण और मानकीरण की समस्याओं से जुझती एक ऐसी लड़खड़ाती ज़ुबान में बदल जाएगी जो हर बार स्वीकृति के लिए अंग्रेजी या रोमन में प्रचलित तर्कों या मान्यताओं की तरफ़ देखेगी। ऐसी कमज़ोर-हांफती हुई हिंदी धीरे-धीरे एक मरती हुई भाषा में बदल जाएगी और नए चेतन भगत आकर हिंदी की जगह अंग्रेजी को ही अपना लेने की ज्यादा व्यावहारिक दलील दे रहे होंगे।
लेकिन यह सवाल हिंदी के जीने या मरने का नहीं है। हिंदी को मरना होगा तो वह मर जाएगी। बहुत सारी भाषाएं मर चुकी हैं और हम उनका शोक तक नहीं मनाते। हिंदी भी धीरे-धीरे दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ अंततः बोली में बदल ही रही है। समझने की जरूरत यह है कि जिस भाषाई साम्राज्यवाद की वजह से हिंदी का यह हाल हुआ है, उसी के नुमाइंदे अब इसे मूलभूत तौर पर बदलने की वकालत कर रहे हैं। याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि भाषाओं की ताकत के पीछे दरअसल सत्ता की ताकत होती है। सोवियत संघ जब तक ताकतवर रहा, लोग रूसी सीखते रहे, इन दिनों चीन की हैसियत बड़ी हुई है तो वे चीनी सीख रहे हैं। अंग्रेजी चूंकि अमेरिका की भाषा है इसलिए वह वैश्विक सरोकार की भाषा बनी हुई है। बेशक अंग्रेजी के करीब जाने या उससे जुडने का मतलब इस वैश्विक साम्राज्यवाद से जुड़ना है जिसका आकर्षण छोटा नहीं है। हिंदी में एक तबका ऐसा है जिसे नोबेल और बुकर जैसे सम्मान खींचते और लुभाते हैं और जिसके भीतर यह मलाल छुपता नहीं कि उसकी कृतियों को वैसी अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल नहीं हो पाती।
सवाल है, क्या रोमन हिंदी भारत के विकास को कुछ गति या समग्रता देगी? यह आत्महीन दृष्टि अगर अमेरिका और यूरोप से अपनी निगाहें मोड़ चीन की तरफ देख सके तो उसे कहीं ज्यादा सही निष्कर्ष सुलभ होंगे। चीनियों की लिपि कहीं ज्यादा जटिल और चुनौती भरी है। लेकिन चीनियों का दर्प इतना बड़ा है कि न उन्हें अपनी बोली बदलने की जरूरत महसूस हो रही है और न ही लिपि। चीनी लोग अंग्रेजी सीख भी रहे हैं तो बस कारोबार के लिए, सरोकार के लिए नहीं। कुछ उसी तरह, जैसे कुछ अंग्रेज और अमेरिकी लोग हिंदी सीख रहे हैं या माइक्रोसॉफ्ट अपने विंडोज़ में हिंदी के फौंट डाल रहा है। जापानियों और रूसियों की भी तरक्की के अभिमान का एक पक्ष यह है कि उन्होंने अपनी भाषा में काम किया है।
लेकिन २०० साल की ब्रिटिश दासता का असर हो या २० साल के अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद का आतंक- भारत अचानक अपना सबकुछ छोड़ ब्रिटेन और अमेरिका की तरह होने को बेताब है। जो-जो चीजें इसकी राह में आ रही हैं, उन्हें वह छोड़ता जा रहा है। देवनागरी लिपि को छोड़ने की वकालत इसी बेताबी का हिस्सा है। सवाल है, इस बेताबी के आखिरी नतीजे क्या होंगे? रोमन में हिंदी को बरतने का चलन दरअसल हिंदी को उसी तरह बांट देगा जैसे भारत बंटा हुआ है। एक रोमन हिंदी होगी जो अंग्रेजीदां प्रभुवर्ग की सेवा करेगी और एक देवनागरी हिंदी होगी जिसमें करोड़ों लोगों के ज़ख़्म अपनी ज़ुबान खोजेंगे। और यह सिर्फ भाषा की खाई नहीं साबित होगी, यह भारत और इंडिया नाम के दो बिल्कुल अलग-अलग बन रहे देशों के फासले को कुछ और बढ़ाएगी। दरअसल यह इंडिया की हिंदी है जो भारत की हिंदी से पीछा छुड़ाना चाहती है और देवनागरी के धूल भरे समाज से अलग होकर अपने लिए रोमन का वातानुकूलित कक्ष चाहती है।
हिंदी या देवनागरी को ऐतिहासिक तौर पर बचना या खत्म होना होगा तो वह बचेगी या खत्म हो जाएगी। इतिहास बहुत निर्मम होता है और उसकी गति चौंकाने वाली होती है। लेकिन इस मोड़ पर जो लोग हिंदी को रोमन में बरतने का आग्रह कर रहे हैं, वे किन ऐतिहासिक शक्तियों के साथ अपनी पहचान जोड़ना चाहते हैं, यह बिल्कुल स्पष्ट है। दिलचस्प यह है कि इस बार यह सुझाव चेतन भगत की ओर से आया है जो एक संस्कृतिविहीन सतही इंडिया के स्टार उपन्यासकार हैं और कुछ व्यावसायिक अख़बारों के सौजन्य से विचारक भी हो चुके हैं। शायद उनके भीतर यह लालसा या कामना है कि बचा-खुचा हिंदी समाज भी उनकी स्वीकृति पर मुहर लगाए- जो तब संभव होगा, जब वह रोमन में हिंदी लिखेगा और चेतन भगत के अंग्रेजी लेखन को अपना आदर्श मानेगा।
संकट यह है कि हिंदी में जब भी स्मृति या सरोकार की बात की जाती है, उसे तत्काल शुद्धतावाद के कठघरे में ला खड़ा किया जाता है, ऐसे हिंदीप्रेमियों की दलील मान लिया जाता है जो हिंदी में किसी बदलाव के हिमायती नहीं हैं। जबकि यह आम अनुभव है कि भाषाएं मेलजोल से ही बनती और समृद्ध होती हैं, शुद्धतावाद उनको मारता है। हिंदी भी दुनिया भर की भाषाओं के साथ इस मेलजोल से समृद्ध हुई है। उसके शब्द भंडार में कई बाहरी भाषाओं के शब्द इस तरह घुले-मिले हैं कि उनको अलग से पहचानना मुश्किल है। यह प्रक्रिया सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर में कुछ ज़्यादा ही तेज़ हुई है। बेशक, इस रफ़्तार के पीछे दो और प्रक्रियाएं काम कर रही हैं- एक तरफ़ शहरी मध्यवर्गीय भारत शिक्षा के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को लगभग अपना चुका है और दूसरी तरफ भूमंडलीय बाज़ार अपने लोकप्रिय सांस्कृतिक-सामाजिक माध्यमों और आर्थिक हितों के साथ हमारे यहां बिल्कुल हमला कर चुका है। अंग्रेजी इस देश में महज एक भाषा नहीं है, विशेषाधिकार का प्रतीक भी है जिसके हिस्से में देश के सबसे ज़्यादा संसाधन हैं। ऐसी स्थिति में एक आत्महीनता में जी रही हिंदी यह आत्मविश्वास भी खो बैठी है कि वह पहले की तरह अंग्रेजी के शब्दों को अपने अभ्यास और अपनी प्रकृति के अनुकूल ढाल सकती है या उनके सटीक और स्वीकार्य अनुवाद गढ़ सकती है। अंग्रेजी अभिजात्य के लिए हिंदी में लिखने-बोलने की कोशिश एक हास्यास्पद और कुंठित सांस्कृतिक बोध की निशानी है जिसे ‘शुद्ध’ हिंदी का मतलब दफ़्तरों में शब्दकोशों के सहारे गढ़ी जा रही एक कृत्रिम और अपच्य हिंदी ही समझ में आता है- दुर्भाग्य से ज़्यादातर अंग्रेजी पृष्ठभूमि से आए और किन्हीं सिफ़ारिशों से विभागों में लग गए हिंदी अफ़सर और विश्वविद्यालयों में बैठे हिंदी प्राध्यापक उनकी इस समझ को अपने लेखन और अनुवादों से कुछ और मज़बूत करते हैं, कुछ और उदाहरण सुलभ कराते हैं।
इन सबके बीच जब कोई चेतन भगत बची-खुची हिंदी को रोमन में लिखे जाने की अपील करता है तो जैसे वह उस सांस्कृतिक हमले की पूर्णाहुति का आह्वान करता है जो अंद्रेजी को वर्चस्व को बिल्कुल अभेद्य बना डाले। सतह पर बहुत निर्दोष और जायज दिखने वाली मांग लेकिन इस प्रश्न से नहीं जूझती कि भाषा का उसकी लिपि से कोई नाभिनालबद्ध रिश्ता होता है या नहीं? भाषा की जो वाचिक परंपरा हमने विकसित की है और उसका जो लिखित रूप निर्धारित किया है, क्या उसमें बहुत कुछ ऐसा नहीं है जो लिपि बदलने के साथ बदल जाएगा? क्योंकि शब्द कागज पर लिखे जाने से पहले हमारी चेतना में लिखे जाते हैं और उन्हें पढते हुए उनके लिखित रूप से उनकी ध्वन्यात्मक अनुगूंजें हमारे भीतर बजती हैं। क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि हमारी छायावादी कविता रोमन में लिखी जाकर अपना वही प्रभाव कायम रखेगी जो हमारी नज़र के सामने उसकी देवनागरी प्रस्तुति पैदा करती है?
बेशक, दुनिया में ऐसी मिसालें रही हैं जब सत्ताओं ने भाषाओं की लिपियां बदली हैं। कमाल अता तुर्क ने टर्की में यह काम सफलतापूर्वक किया। लेकिन इस सफलता का वही इतिहास हमें मालूम है जो बाद में सुलभ रहा, या बच पाया। तुर्की को उसकी लिपि से काट कर रोमन में लिखे जाने की परेपरा ने वहां के समाज में जो ज़ख़्म पैदा किए होंगे, उसकी खरोंच से हम अनभिज्ञ हैं। संभव है, इस प्रक्रिया में बहुत सारी अभिव्यक्तियां हमेशा-हमेशा के लिए कुंद पड़ गई हों और बहुत सारी विरासत भी लापता हो गई हो। भाषाओं को जब उनकी लिपियों से वंचित किया जाता है तो क्या उनके भीतर ध्वनि और अर्थों की कुछ ऐसी उलझनें पैदा नहीं होतीं जो अंततः उन्हें अभिव्यक्ति के स्तर पर कमज़ोर करती हैं? यह सच है कि हम उर्दू की महान शायरी को देवनागरी में बड़ी सहजता से पढ़ लेते हैं लेकिन ग़ालिब और मीर या फ़ैज़ और फ़िराक़ अगर देवनागरी में लिखने बैठते तो क्या उसी सहजता से लिख पाते- इस तथ्य के बावजूद कि शेर लिखे नहीं कहे जाते हैं।
और क्या हिंदी जब रोमन में लिखी जाएगी तो एक भाषा के रूप में उसका वैशिष्ट्य बचा रहेगा? अपने लिंग संबंधी आग्रहों से पैदा होने वाली जटिलता के बावजूद हिंदी अपने व्याकरण के लिहाज से दुनिया की आधुनिक भाषाओं में किसी से पीछे नहीं है। उसका एक सुसंगत व्याकरण है जिसमें उच्चारण का आधार अंग्रेजी, उर्दू या किन्हीं भी दूसरी भाषाओं के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा वैज्ञानिक और सहज है। इस हिंदी को रोमन में लिखना शुरू करते हुए ही वह अपने व्याकरण, उच्चारण और मानकीरण की समस्याओं से जुझती एक ऐसी लड़खड़ाती ज़ुबान में बदल जाएगी जो हर बार स्वीकृति के लिए अंग्रेजी या रोमन में प्रचलित तर्कों या मान्यताओं की तरफ़ देखेगी। ऐसी कमज़ोर-हांफती हुई हिंदी धीरे-धीरे एक मरती हुई भाषा में बदल जाएगी और नए चेतन भगत आकर हिंदी की जगह अंग्रेजी को ही अपना लेने की ज्यादा व्यावहारिक दलील दे रहे होंगे।
लेकिन यह सवाल हिंदी के जीने या मरने का नहीं है। हिंदी को मरना होगा तो वह मर जाएगी। बहुत सारी भाषाएं मर चुकी हैं और हम उनका शोक तक नहीं मनाते। हिंदी भी धीरे-धीरे दूसरी भारतीय भाषाओं के साथ अंततः बोली में बदल ही रही है। समझने की जरूरत यह है कि जिस भाषाई साम्राज्यवाद की वजह से हिंदी का यह हाल हुआ है, उसी के नुमाइंदे अब इसे मूलभूत तौर पर बदलने की वकालत कर रहे हैं। याद दिलाने की ज़रूरत नहीं कि भाषाओं की ताकत के पीछे दरअसल सत्ता की ताकत होती है। सोवियत संघ जब तक ताकतवर रहा, लोग रूसी सीखते रहे, इन दिनों चीन की हैसियत बड़ी हुई है तो वे चीनी सीख रहे हैं। अंग्रेजी चूंकि अमेरिका की भाषा है इसलिए वह वैश्विक सरोकार की भाषा बनी हुई है। बेशक अंग्रेजी के करीब जाने या उससे जुडने का मतलब इस वैश्विक साम्राज्यवाद से जुड़ना है जिसका आकर्षण छोटा नहीं है। हिंदी में एक तबका ऐसा है जिसे नोबेल और बुकर जैसे सम्मान खींचते और लुभाते हैं और जिसके भीतर यह मलाल छुपता नहीं कि उसकी कृतियों को वैसी अंतरराष्ट्रीय मान्यता हासिल नहीं हो पाती।
सवाल है, क्या रोमन हिंदी भारत के विकास को कुछ गति या समग्रता देगी? यह आत्महीन दृष्टि अगर अमेरिका और यूरोप से अपनी निगाहें मोड़ चीन की तरफ देख सके तो उसे कहीं ज्यादा सही निष्कर्ष सुलभ होंगे। चीनियों की लिपि कहीं ज्यादा जटिल और चुनौती भरी है। लेकिन चीनियों का दर्प इतना बड़ा है कि न उन्हें अपनी बोली बदलने की जरूरत महसूस हो रही है और न ही लिपि। चीनी लोग अंग्रेजी सीख भी रहे हैं तो बस कारोबार के लिए, सरोकार के लिए नहीं। कुछ उसी तरह, जैसे कुछ अंग्रेज और अमेरिकी लोग हिंदी सीख रहे हैं या माइक्रोसॉफ्ट अपने विंडोज़ में हिंदी के फौंट डाल रहा है। जापानियों और रूसियों की भी तरक्की के अभिमान का एक पक्ष यह है कि उन्होंने अपनी भाषा में काम किया है।
लेकिन २०० साल की ब्रिटिश दासता का असर हो या २० साल के अमेरिकी नवसाम्राज्यवाद का आतंक- भारत अचानक अपना सबकुछ छोड़ ब्रिटेन और अमेरिका की तरह होने को बेताब है। जो-जो चीजें इसकी राह में आ रही हैं, उन्हें वह छोड़ता जा रहा है। देवनागरी लिपि को छोड़ने की वकालत इसी बेताबी का हिस्सा है। सवाल है, इस बेताबी के आखिरी नतीजे क्या होंगे? रोमन में हिंदी को बरतने का चलन दरअसल हिंदी को उसी तरह बांट देगा जैसे भारत बंटा हुआ है। एक रोमन हिंदी होगी जो अंग्रेजीदां प्रभुवर्ग की सेवा करेगी और एक देवनागरी हिंदी होगी जिसमें करोड़ों लोगों के ज़ख़्म अपनी ज़ुबान खोजेंगे। और यह सिर्फ भाषा की खाई नहीं साबित होगी, यह भारत और इंडिया नाम के दो बिल्कुल अलग-अलग बन रहे देशों के फासले को कुछ और बढ़ाएगी। दरअसल यह इंडिया की हिंदी है जो भारत की हिंदी से पीछा छुड़ाना चाहती है और देवनागरी के धूल भरे समाज से अलग होकर अपने लिए रोमन का वातानुकूलित कक्ष चाहती है।
हिंदी या देवनागरी को ऐतिहासिक तौर पर बचना या खत्म होना होगा तो वह बचेगी या खत्म हो जाएगी। इतिहास बहुत निर्मम होता है और उसकी गति चौंकाने वाली होती है। लेकिन इस मोड़ पर जो लोग हिंदी को रोमन में बरतने का आग्रह कर रहे हैं, वे किन ऐतिहासिक शक्तियों के साथ अपनी पहचान जोड़ना चाहते हैं, यह बिल्कुल स्पष्ट है। दिलचस्प यह है कि इस बार यह सुझाव चेतन भगत की ओर से आया है जो एक संस्कृतिविहीन सतही इंडिया के स्टार उपन्यासकार हैं और कुछ व्यावसायिक अख़बारों के सौजन्य से विचारक भी हो चुके हैं। शायद उनके भीतर यह लालसा या कामना है कि बचा-खुचा हिंदी समाज भी उनकी स्वीकृति पर मुहर लगाए- जो तब संभव होगा, जब वह रोमन में हिंदी लिखेगा और चेतन भगत के अंग्रेजी लेखन को अपना आदर्श मानेगा।
(प्रियदर्शन जी के वर्चुअल वाल से, जो नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हो चूका है. )
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