साधना मदान
सिसकती आवाज़ और दहाड़ का जैसे कोई मेल नहीं वैसे ही विविध विषयों की दहाड़ के आगे आज हिंदी सिसक रही है।पब्लिक स्कूलों में हिंदी की दशा दिन प्रतिदिन पतन के कगार पर पँहुच रही है। विद्यालयों में हिंदी विषय कक्षा ग्यारहवीं और बारहवीं के लिए जैसे बोझ-सा होने लगा है। प्रतिशत के लिहाज़ से विद्यालय का परीक्षा परिणाम अच्छा रहे इसलिए छात्रों को हिंदी विषय नहीं दिया जाता। हिंदी में और विषयों की तरह प्रैक्टिकल भी नहीं है। इन स्कूल प्रबंधकों का मानना है कि प्रैक्टिकल वाले विषयों में ही अच्छे अंक आते हैं। पब्लिक स्कूलों में अच्छे अंक लाने के लिए अंग्रेजी कोर पढ़ाई जाती है। अंग्रेजी कोर के साथ हिंदी कोर को नहीं रखा जा सकता क्योंकि दिल्ली विश्व विद्यालय में दो कोर विषय स्वीकार्य नहीं हैं। ऐसी स्थिति में हिंदी को ही दरकिनार किया जाता है क्योंकि अंग्रेजी तो सर्व मान्य भाषा है।साहित्य की संवेदना युवा के ह्रदय की धड़कन हो सकती है, पर आज अनुभवी शिक्षा विदों का मानना है कि साहित्य का राग अलापने वाले अब मौन रहो । आज कोमलता, संवेदना और मानवीय मूल्यों का तो केवल दिखावा है। हिंदी साहित्य में न तो भविष्य का कोई कमाऊ सपना चमकता है और न ही रोजी-रोटी कमाने के आसार, तो भला हिंदी को कक्षा ग्यारहवीं व बारहवीं में मुख्य विषय का सम्मान व स्थान क्यूं दे दिया जाए? विद्यालय में अब हिंदी अध्यापिका को एक तनाव के दौर से गुजरना पड़ता है। कहा जाता है इस विषय में न तो अधिक अंक विद्यार्थी ले सकता और न ही हिंदी जैसे विषय का कोई महत्त्व रह गया है। होमसाइंस और भूगोल जैसे विषय विद्यार्थियों केे मत्थे यह कहकर मढ़ दिए जाते है कि हिंदी इलेक्टिव बहुत कठिन है। अत: अधिक अंक पाने के लिए इसको छोड़ना होगा।
नैतिकता का पाठ पढ़ाने के लिए आज प्रत्येक विद्यालय में मूल्य परक तथ्यों को परीक्षा में अनिवार्य रूप से रखा जाता है। जीवन मूल्यों, शुद्ध आदर्श, सत्यता और पवित्र जीवन शैली तो अपने साहित्य की ही धरोहर होती है और आज ये विद्यालय हिंदी साहित्य के निराला, महादेवी, तुलसी, मीरा आदि महान साहित्यिक विभूतियों को सदा के लिए कक्षा ग्यारहवीं और बारहवीं से निष्कासित करने पर तुले है। अब भविष्य में लगता है इन कक्षाओं के बस्ते में कभी हिंदी की पुस्तकें नहीं मिलेंगी।
पब्लिक विद्यालयों में तो लगता है सदा के लिए हिंदी साहित्य को दफ़न करने का बीड़ा उठा लिया है। अंग्रेजी माध्यम के इन विद्यालयों में हिंदी से तो परहेज़ सिखाया जा रहा है पर इंग्लिश में भी इनके बच्चे वही फटेहाल जैसी दुर्दशा में अंग्रेजी को सीख रहे है। मतलब बिलकुल साफ कि दोनों भाषाओं के साथ अन्याय हो रहा है। पर विडंबना यह है कि बंदर-बिल्ली की इस होड़ में गला तो हिंदी साहित्य का घुट रहा है।
अंकों की दुहाई देने वाले इन पब्लिक स्कूलों से हिंदी साहित्य का अध्यापक यह पूछता है कि इनके यहाँ से तीन या चार प्रतिशत बच्चे ही दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश ले पाते है । जबकि हिंदी विषय पढने से विद्यार्थी पत्रकारिता और अनुवादक के कार्यभार को बड़ी कुशलता से संभाल सकता है। केन्द्रीय विद्यालयों मेँ भी कक्षा ग्यारहवीं और बारहवीं में हिंदी विषय पढाया जा रहा है फिर इन पब्लिक स्कूलों को क्या परेशानी है?
वैदिक धर्म की शिक्षा देने वाले डीoएoवीo विद्यालय भी हिन्दी विषय को नकारने में कोई कसर नहीं छोड रहे। डीoएoवीo के अधिकांश विद्यालय भी हिंदी से पल्ला झाड़ चुके है । वेदों का ज्ञान देना और शुद्ध मंत्र उच्चारण सिखाने वाले ये स्कूल भी बच्चों की रुचि, प्रतिभा व भविष्य के साथ खिलवाड़ करते नजर आते है। अंत में इस क्रंदन की हूक यही कहती है कि मेरा मकसद केवल हंगामा खड़ा करना नहीं, सूरत बदलने से है। सभी हिंदी के चाहने वालों हिंदी को सभी के अंतर्मन की पुकार बनाकर कक्षा ग्यारहवीं व बारहवीं के लिए अनिवार्य विषय के रूप में सम्मान दिलाने में अपनी हुंकार भरें।
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