Saturday, 15 August 2015

स्वतंत्र होने का जश्न

दीपक मिश्रा
हर साल के मानिंद इस साल भी हम स्वतंत्र होने का जश्न मनाने जा रहे। हम खुश होने जा रहे कि आज ही के दिन कैलेंडर पर दो शताब्दियों से झेलते आ रहे अंग्रेजी हुकूमत से हमें मुक्ति मिली थी। हम खुश होने जा रहे कि आज ही के दिन हमने आजादी से खुली हवा में साँस लिया था,हमने आजादी से बादलों को निहारा था,फूलों को सूंघा था,गाया था,बजाया था,नाचा था,नचाया था,पतंग भी उड़ाया था,तिरंगा भी लहराया था,वगैरह-वगैरह न जाने कितने ही काम आजादी से किया था। क्या मालूम, हमने ऐसा किया भी हों। हमें उपरोक्त बातें छपी-छपाई,रटी-रटाई कितने ही किताबों में (विशेषकर निबन्ध-संग्रहों में) मिल ही जाती हैं और हम विश्वास भी मान लेते हैं। माने भी क्यूँ न, भई किताब में झूठ तो लिखा नहीं होता। पर क्या 15 अगस्त 1947 को वाकई हम खुश थे? इस पावन पर्व पर मनाये जा रहे जश्न का जायका बिगाड़ने का दोष न मढ़कर इस प्रश्न पर हमें विचार करना चाहिए। सत्य है-15 अगस्त 1947 को ही हम आजाद हुए थे। यह भी सत्य है कि उसी दिन हमें अरसों बाद खुली हवा,खुली धरती ,खुला गगन मिला था। पर क्या हम खुश थे? चलिए अपनी बात छोड़ते हैं। पर आजादी के इस यज्ञ में अपना सर्वस्व होम देने वाले, सत्य,अहिंसा और त्याग के प्रतिमूर्ति बापू खुश थे? चलिए अपनी छोड़िये, प्यारे बापू की छोड़िये, क्या अपना पड़ोसी खुश था? मैं नहीं जानता। अकिंचन रहे भी हों। भौतिक रूप में भले ही हम 15 अगस्त 1947 में न पहुंच पाए पर विचारों में जब हम उस तिथि-विशेष में जाते हैं तो रोम-रोम पुलकने के बजाय सिहर उठता है। 200 साल से हमें चूस रहे अंग्रेजों को खदेड़ने में हमने जितनी शहादतें दी, सन 47 के दंगों में उससे कहीं ज्यादा कुर्बानियाँ आपस में लड़कर दे दिया। एक ही माँ के दो बेटे जब किन्हीं कारणवश आपस में लड़कर, मर-मारकर अलग हो जाते हैं तब अलग होने का मनोवांछित फल के मिल जाने के बावजूद उस दिन जश्न मनाने के बजाय अपने-अपने हिस्सों में मुंह ढापकर वे रो रहे होते हैं। मनुष्य स्वभाव से ही परिवेश-प्रेमी होता है। उसे अपना घर-आँगन, अपने बाग़-बगीचे, सड़कें जो उनकी अपनी नहीं पर अपनी-सी ही होती हैं, धार्मिक-स्थल,मैदान, वे सबकुछ जो उनका परिवेश-निर्माण करता है, और इससे भी बढ़कर अपने स्वजन प्राणों की तरह प्यारा होता है। एक झटके से इन सबके छिन जाने से बने ज़ख्म को 'आजादी-आजादी' के चंद राजनीतिक नारों से भरा नहीं जा सकता। कान छिद रहे बच्चे को गुड़ चखाने से जख्म नहीं भर जाते। हाँ बात बस सड़क किनारे भीख माँग रही भिखारिन का अपने बच्चे को अफ़ीम चखाकर बेसुध करना है कि वो उसे तंग न करें। हमें आजाद हुए 68 वर्ष हो गये। इस दरम्यान देश दो पुश्त आगे भी बढ़ा। शनैः-शनैः हम आधुनिक भी होते गये। हमारी आवश्यकताएं बदली। आवश्यकताओं के बदलने से अवाधारानाएं बदली। नैतिकता के नये आधार बनने लगे। पर विचारशक्ति के नाम पर हम 'बाबा-आदम' के जमाने से निकले ही नहीं। तब बंगाल था, पंजाब था, गुजरात था, कश्मीर था, लाहौर था। आज भी मुजफ्फरनगर है, गोधरा है, दीमापुर है, कश्मीर है, पेशावर है। 15 अगस्त 1947 को न बंगाल खुश था, न पंजाब खुश था, न कश्मीर खुश था, न गुजरात खुश था। आज भी न पंजाब खुश है, न बंगाल खुश है, न गुजरात खुश है, न कश्मीर खुश है। फिर भी हममें जश्न मनाने की हिम्मत है, क्योंकि हम आधुनिक हैं। क्यूंकि हम स्वतंत्र हैं। पर तब और अब कोई तो खुश रहा होगा। भले ही वे बापू न हों, भले ही वो आम भारतीय न हो। वे खुश थे क्योंकि वे जन्म से ही 'खुशनसीब' थे। क्योंकि उनमें अफीम चखाकर मदहोश करने की कला थी। आज भी अकिंचन वे ही खुश हों। जय हिन्द।

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