संदीप भाटी
आजादी मुबारक हो...
नई दिल्ली। तिरंगे को आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसका श्रेय शायद किसी एक शख्स को नहीं दिया जा सकता है। तिरंगे का मौजूदा रूप अलग-अलग वक्त में बने झंडों और उनकी सोच से मिली प्रेरणा का नतीजा है। तिरंगे की इस विकास यात्रा में शायद 1931 सबसे खास जगह रखता है क्योंकि यही वो साल था जब एक प्रस्ताव पास कर ये फैसला किया गया कि तिरंगा ही हमारा राष्ट्रीय ध्वज होगा। हालांकि गांधी जी इस तिरंगे के विरोध में थे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि मैं तिरंगे को सलाम नहीं करूंगा। 2 अप्रैल 1931 को कांग्रेस ने सर्वमान्य झंडे को अंतिम रूप देने के लिए सात सदस्यों की कमेटी बनाई, जिसमें जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आजाद, मास्टर तारा सिंह, काका कालेलकर, डॉक्टर हार्डेकर और पट्टाभि सीतारमैया थे। आखिरकार 1931 को कराची में कांग्रेस कमेटी की बैठक में पिंगली वैंकेया ने नया तिरंगा पेश किया। तिरंगे का आज हम जिस रूप में देखते हैं, उसका श्रेय शायद किसी एक शख्स को नहीं दिया जा सकता है। तिरंगा का मौजूदा रूप अलग-अलग वक्त में बने झंडों और उनकी सोच से मिली प्रेरणा का नतीजा है। इसमें सबसे ऊपर केसरिया, नीचे हरे रंग और बीच में सफेद रंग की पट्टी थी। बीच में नीले रंग का चरखा था। केसरिया रंग को साहस, सफेद-सच और शांति, हरे को विश्वास और स्मृद्धि का और नीले रंग को विकास का प्रतीक माना गया। आखिरकार इस स्वराज ध्वज के तले ही आजादी की आखिरी लड़ाई लड़ी गई। अंग्रेजों ने भारत को आजाद करने का फैसला किया, तब आजाद भारत का राष्ट्रीय झंडे का सवाल भी खड़ा हुआ। इस झंडे की तलाश के लिए 23 जून 1947 को देश की संविधान सभा ने डाक्टर राजेंद्र प्रसाद के नेतृत्व में एक एडहॉक कमेटी का गठन किया, जिसमें मौलाना आजाद, केएम मुंशी, सरोजनी नायडू, सी राजगोपालाचारी और बी आर अंबेडकर थे। अगले दिन यानी 24 जून 1947 को आखिरी वायसरॉय लार्ड माउंटबेटेन ने प्रस्ताव दिया कि ब्रिटेन से लंबे रिश्ते के प्रतीक के तौर पर झंडे के कोने में ब्रिटिश यूनियन जैक भी होना चाहिए। ज्यादातर लोग माउंटबेटन के इस प्रस्ताव के खिलाफ थे, लेकिन गांधी जी ने एक प्रार्थना सभा में कहा कि इसमें क्या गलत है अगर भारत अपनी महान परंपराओं के मुताबिक राष्ट्रीय झंडे में यूनियन जैक को भी जगह दे। नेहरू और एडहॉक कमेटी ने झंडे में यूनियन जैक का प्रस्ताव खारिज कर दिया। आखिरकार 3 हफ्ते चली बैठक के बाद कमेटी ने 14 जुलाई 1947 को ये फैसला किया कि अब तक चले आ रहे कांग्रेस के ही झंडे को कुछ बदलाव के साथ स्वीकार कर लिया जाए। आखिरकार आजादी से महज चंद दिन पहले संविधान सभा में तिरंगे की नई डिजाइन का प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू ने रखा। 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने तिरंगे को आजाद भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने की घोषणा की। आजादी के बाद तिरंगे में मौजूद तीनों रंग और उनकी अहमियत वैसी ही रही जैसी इसे तैयार करते वक्त सोचा गया था, लेकिन इसमें एक बदलाव ये किया गया कि अब झंडे के बीच में चरखे की जगह अशोक के धर्म चक्र ने ले ली। और इस तरह से कांग्रेस पार्टी का तिरंगा इस अहम बदलाव के साथ आजाद भारत का राष्ट्रीय ध्वज बन गया। आजाद भारत के नए राष्ट्रीय ध्वज में अब चरखे की जगह अशोक चक्र ने ले ली थी। चक्र को सारनाथ में मिले तीसरी सदी के महान सम्राट अशोक के स्तंभ से लिया गया। मकसद, राष्ट्रीय झंडे को कांग्रेस के झंडे से अलग रखना था, लेकिन ये झंडा लहराता, इससे पहले आखिरी बहस बाकी थी। गांधी जी नए तिरंगे में चरखे की जगह चक्र को शामिल करने के खिलाफ थे। लाहौर में 6 अगस्त 1947 को गांधी जी ने बयान दिया कि ‘मेरा ये कहना है कि अगर भारतीय संघ के झंडे में चरखा नहीं हुआ तो मैं उसे सलाम करने से इंकार करता हूं।‘ दरअसल, गांधी जी तिरंगे में चक्र के खिलाफ इसलिए थे क्योंकि उनका मानना था कि ये उस अशोक की लाट से लिया गया है, जिसमें सिंह भी है जो हिंसा का प्रतीक है। भारत की आजादी की जंग अहिंसा के सिद्धांत पर लड़ी गई थी, लेकिन पटेल और नेहरू ने गांधी जी को समझाया कि तिरंगे में चक्र का मतलब विकास है और ये अहिंसा का प्रतीक चरखे का ही रूप है। आखिरकार, अनमने मन से गांधी के मानने के बाद 15 अगस्त 1947 को वो वक्त आया जब तिरंगा आजाद भारत में लहराने लगा।
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