Friday 7 August 2015

बढ़ते अपराध घटते मानव मूल्य

कृष्णा कुमार द्विवेदी
अख़बार के पन्ने पलटते हुए सहसा नज़र एक ख़बर पर पड़ी. खबर कुछ यों थी 'एक घर के बाहर तीन महिलाएँ आई और पानी पिलाने को कहा, मकान मालकिन अकेली थी और जब पानी लेने अंदर गयी तो एक महिला ने शीशी खोलकर रुमाल में नशीला पदार्थ डाल दिया. जब मकान मालकिन पानी लेकर बाहर आई तो उसे रुमाल सुंघा दिया गया. वह बेहोश होकर गिर गयीं और फिर वो तीनों महिलाएँ घर से जेवर और रुपये लेकर फरार हो गयी. अब प्रश्न ये उठता है कि आगे से जब भी कोई उसी घर के सामने पानी पिलाने को कहेगा तो क्या वह महिला पानी पिलाएगी? भले ही कोई भला इंसान जो बहुत ज्यादा प्यासा हो तो भी उसे शायद प्यासा ही वहां से जाना पड़े और वह महिला ही क्यों, जो भी इस खबर को पढेंगे या इसके बारे में सुनेंगे वे भी आगे से सतर्क हो जायेंगे. मेरे घर में भी आज तक जब भी कोई घर के बाहर पानी पिलाने को कहता था तब तक बिना किसी संदेह और डर के हमेशा पानी पिला दिया जाता था पर इस खबर का असर शायद आने वाले दिनों में दिखे. लिफ्ट लेने के बहाने गाड़ी रुकवाकर लूट और हत्या की घटनाएँ भी हमने सुनी हैं और इसका असर ये है कि अब कोई मुसीबत का मारा घंटों हाथ हिलाता रहे पर कोई गाड़ी उसकी मदद के लिए नहीं रूकती. हमारे पड़ोस में एक आंटी रहती थी. एक बार उनका भाई उनके घर रुका था और वह अपनी बहन की ही ज्वेलरी लेकर फरार हो गया. मतलब अब रिश्तों पर भी आसानी से भरोसा नहीं किया जा सकता और किसी रिश्तेदार को घर पर ठहराने से पहले भी शायद सोचना पड़े. चाइल्ड रेप के ज्यादातर मामलों में नज़दीकी पहचान वाले ही दोषी पाए जाते हैं. ऐसे में किस पर भरोसा किया जाये? सड़क पर दुर्घटना होती है पर लोग आँख बंद करके निकल जाते हैं. कोई किसी की मदद करता भी है तो पुलिस और राजनीति के चक्र में ऐसा फंसता है कि आगे से मदद करने लायक ही नहीं बचता. इन सब घटनाओं की वजह से मुझे एक ऐसा समाज दिखाई पड़ रहा है जहाँ कोई किसी की मदद या तो करता ही नहीं या करने से पहले हजार बार सोचता है क्योंकि उसे डर है कि सामने वाला इंसान कहीं उसे ही न ठग ले. जहाँ लोगों के सामने कोई भी असामाजिक घटना हो रही है पर सब आँखों पर पट्टी बांधे हुए है ....जहाँ कोई चीख-चीख कर मदद के लिए पुकार रहा है पर जिन कानों पर वह चीख पड़ती है वे सब कान बहरे हैं.. जहाँ लोगों के बीच असुरक्षा और अविश्वास बढता जा रहा है, जहाँ लोगों में स्वार्थ इस कदर बढ़ गया है कि पैसो से बड़ा न ही कोई रिश्ता बचा है ना ही कोई नैतिक मूल्य. किस दिशा में बढ़ रहे है हम? क्या यहीं हमारी मंज़िल है? ऐसे कई प्रश्न मेरे दिमाग़ में उठ रहे थे. तभी एक दोस्त ने एक कहानी याद दिलाई. एक बार एक साधु बिच्छू को पानी में डूबते हुए देखता है और उसे बचाने की कोशिश करता है पर बिच्छू उसे डंक मार देता है. ऐसा३-४ बार होता है. एक राहगीर जो वहाँ से गुजर रहा होता है वह साधु से पूछता है आप क्यों इसे बचा रहे हैं जबकि यह आपको डंक मार रहा है. साधु बोलता है यह बिच्छू की प्रवृति है कि वह डंक मारे और यह मेरी प्रवृति है की मैं उसे बचाऊँ. मैं अपने धर्म से पीछे कैसे हट सकता हूँ. आज के समय यह कहानी कितनी प्रासंगिक है ये तो नहीं कह सकता पर हाँ सतर्क रहकर भी हम अपने कर्तव्यों का पालन कर सकते हैं...

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