कृष्णा कुमार द्विवेदी
हमें बेहतर समाज चाहिए, बेहतर न्यायिक व्यवस्था चाहिए, बेहतर सरकार, बेहतर शासन तंत्र, बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाएँ चाहिए लेकिन बेहतरी का यह रास्ता अगर कहीं से शुरू होता है तो सिर्फ हमारे भीतर से. हम सब कुछ बदलना चाहते हैं पर खुद को नहीं. हम भ्रष्टाचार रहित देश चाहते हैं लेकिन हेलमेट घर भूल जाने पर 50-100 रुपये का नोट निकालकर हवलदार को थमाने में संकोच नहीं करते. हमें साफ़-सुथरा मोहल्ला और शहर चाहिए पर केले खाकर उसके छिलके बीच सड़क फ़ेंक देने में हमें शर्म नहीं आती. हमें अच्छी शिक्षा चाहिए लेकिन हमें क्लास में पढ़ाई पर ध्यान नहीं देना है, क्योंकि हम तो ट्यूशन जाते हैं. हम न्याय पाने की बातें करते हैं पर अपने पारिवारिक और सामाजिक जीवन में हम कितने न्याय के समर्थक हैं ये सोचना नहीं चाहते. हम सच का नहीं, पैसे और ताकत का समर्थन करते हैं. अपने स्वार्थ की खातिर रिश्तों में संतुलन नहीं रख पाते. अपने वृद्ध माता-पिता को वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं. अपनी बेटी के लिए उसके ससुराल का सपना देखते हैं, वैसा ससुराल अपनी बहु को नहीं दे पाते. महिला अधिकारों की बातें करते हैं, पर अपनी या अपने बेटे की शादी में दहेज़ से परहेज नहीं करते. हमें अपनी माँ-बहन की इज्जत बहुत प्यारी है, पर दूसरों की बहु बेटियों को बुरी नजर से देखना हम नहीं छोड़ेंगे. आन्दोलन, क्रांति ये शब्द कितने अच्छे लगते हैं ना हमें, इनका हिस्सा बनकर कितना गर्व महसूस करते हैं, ना सर्दी देखते हैं ना बारिश. समय की भी परवाह नहीं करते लेकिन बीच सड़क जब कोई मदद की गुहार लगाता है तो हम बहरे बन जाते हैं क्योंकि हम तो दुनिया के सबसे व्यस्त इंसान हैं. हमारा समय बहुत कीमती है. समझ नहीं आता हम दोयम दर्जे के आत्मकेंद्रित और स्वार्थी व्यक्ति किस मुंह से बदलाव और परिवर्तन की बातें करते हैं!!
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