Tuesday 17 May 2016

यहां से शहर को देखो

प्रिय दर्शन
रांची मेरी रांची के नाम से यह स्तंभ साल 2009 में लिखा गया। वह भी करीब ढाई-तीन दशक पुरानी यादों पर। अभी यह मंतव्य के नए अंक में आया है। यहां कुछ हिस्से। 
(एक) यहां से शहर को देखो
 ‘पटपड़गंज जैम, अवायड इट’। रवीश कुमार का एसएमएस है। 
‘नो टेंशन, आई एम इन रांची’, मैंने पलट कर एसएमएस किया है। कुछ देर बाद फिर एसएमएस का अलर्ट है, रवीश ने इस बार लिखा है, ‘भगवान करे, रांची में ही आपको जाम झेलना पड़े।‘
ये फ़्लाइटेड बॉल छोड़ने के लिए नहीं है, मैं एक जो़रदार शॉट लगाता हूं, ‘अपने शहर में किसी भी जाम से निकलने की हजारों गलियां मालूम रहती हैं।‘ 
लेकिन गेंद सीमा पार नहीं जाती। ठिठक कर मुझे देखने लगती है, जैसे पूछ रही हो, ‘क्या ये शहर तुम्हारा है?’ बस इसलिए कि तुम यहां पैदा हुए? बस इसलिए कि यहां पढ़ाई की? बस, इसलिए कि यहां करिअर शुरू किया?’ 
मैं भी रुक कर अपने शहर को देखने की कोशिश कर रहा हूं। ८ जुलाई १९९३ को क्या मैं इसी शहर को छोड़कर गया था- अपने भीतर घुमड़ते इस वादे के साथ कि एक दिन लौट आऊंगा। अज्ञेय की तरह न मैंने कहा, न सोच पाया कि ‘चाहे युगों-युगों के बाद’ और न ही किसी बूंद ने सहसा उछल कर मुझसे पूछा, ‘अरे यायावर रहेगा याद?’ 
लेकिन मैं यायावर नहीं हूं और याद रखने का सवाल नहीं है, क्योंकि भूलने की स्थिति नहीं है। दिल्ली में १५ बरस गुजारने के बाद भी रांची जैसे मेरी उंगली पकड़ कर चलती है। 
मुझे अपनी दादी याद आती है। ५० के दशक के आखिर में वह अपने बेटे के साथ गया से रांची आ गई थी। लेकिन गया कभी छोड़ नहीं पाई- कम से कम अगले तीस बरस तक तो कतई नहीं। हर बात पर अपने उस छूटे शहर को याद करती, वहां के मसालों, वहां की खुशबू, वहां के रिवाजों का वास्ता देती। हम मज़ाक में कहा करते, खाती रांची का हो, गाती गया का हो, ये ठीक नहीं है दादी।

लेकिन तब कहां पता था कि दादी से किया जाने वाला ये मजाक बरसों बाद पलट कर मेरा भी मुंह चिढ़ाएगा? खा दिल्ली का रहे हो, गा रांची की रहे हो। लेकिन यह खाने या गाने का सवाल नहीं है। जब रांची छोड़ रहा था तब भी ज़िंदगी रोक नहीं पाई और अब जब रांची छूट नहीं रही तब भी उसका कोई वश नहीं है। दरअसल शहर जितना हमारे भूगोल में होता है, उतना ही हमारी स्मृति में भी होता है। जब हम निकलते हैं तो वह भी झोला लटकाए हमारे साथ निकल चलता है। 
लेकिन क्या ये आधा सच नहीं है? जो शहर हम अपने साथ लिए चलते हैं, वह भी छूट जाता है और उसकी जगह एक नया शहर बनता जाता है। रास्ते अजनबी होते जाते हैं, नई इमारतें बेगानी निगाहों से देखती हैं और नए सिरे से पूछती हैं परिचय। चाय की जिन दुकानों पर जाना-पहचाना मजमा हुआ करता था, वहां नए-पुराने चेहरे एक छूटे हुए परिचय की बची-खुची पहचान टटोलते हैं। अगर वह मिल गई तो आप खुशकिस्मत हैं, आपका मेहमान की तरह स्वागत होगा, अगर नहीं मिली तो अनजान की तरह आगे बढ़ जाइए। 
आज कहानी यहीं तक, देखें, आगे शहर कितना रास्ता है, वापसी मुमकिन होती है या नहीं, पुरानी पहचान जागती है या नहीं।

(दो) वह रास्ता वह वास्ता
यह सत्तर का दशक था जब मैं पहली बार अपने मुहल्ले, अपने शहर को देख और पहचान रहा था। तब किशोरगंज एक छोटा सा मुहल्ला हुआ करता था। मेन रोड की तरफ से बड़ा तालाब पार करते और रातू रोड की तरफ से गाड़ीखाना पीछे छोड़ते ही शुरू हो जाती किशोरगंज की सरहद। एक तरह से यहीं से शहर की सरहद भी शुरू हो जाती। क्योंकि किशोर गंज से हरमू नदी की तरफ बढ़ने के बाद नई बन-बस रही हरमू हाउसिंग कॉलोनी से आगे जाने का रास्ता नहीं हुआ करता था। कडरू और अशोक नगर तक दूर की बस्तियां थीं जहां शहर के इस सिरे से पहुंचा नहीं जा सकता था। उस बाइपास की तो कल्पना तक नहीं थी जिसके जरिए अब कांके से धुरवा तक जुड़े हुए हैं और जहां से नए बने झारखंड के मंत्रियों और संतरियों का काफिला गुजरा करता है। 
किशोर गंज की चर्चा से पहले एक नज़र इस बाइपास पर। क्योंकि यही वह रास्ता है जो मेरे शहर रांची को झारखंड की राजधानी में और मेरे मुहल्ले किशोरगंज को इस राजधानी के एक उपेक्षित और कुचली सी रिहाइश में बदलता है। 
हमारे स्कूल के दिनों में यह रास्ता बन ही रहा था। इस सूनी सड़क से जाना तब निरापद नहीं माना जाता था। लेकिन हमारे लिए वह नितांत आत्मीय सड़क थी- एक ऐसी सड़क जिसपर हम बेपरवाह अपने बैट-बॉल लिए और पिच पर बिछाया जाने वाला मैट घसीटते चला करते। इसके समांतर एक पुरानी सड़क हरमू नदी से उतर कर हरमू हाउसिंग कालोनी पहुंचती जो आगे अड़गो़ड़ा की तरफ निकल जाती। अब भी वह रास्ता है, लेकिन छूटे हुए शहर का छूटा हुआ रास्ता। बहरहाल, उस नए बनते हुए हाइवे पर उन दिनों का चर्चित गाना ‘यमां-यमां-यमां-यमां, ये ख़ूबसूरत समां, बस आज की रात है ज़िंदगी, कल हम कहां, तुम कहां’ लगभग शोर की तरह गाते हमारी क्रिकेट टीम गुजरती तो लगता कि हम एक दूर जा रही सड़क पर नहीं, अपने मैदान, अपने मुहल्ले, अपने घर में हैं। 
लेकिन ‘कल हम कहां, तुम कहां’ की वह प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति तब समझ में नहीं आई जिसने कई साल बाद एक हादसे के साथ लगभग झिंझोड़ दिया। २००४ के अगस्त या सितंबर में गाज़ियाबाद के एक फोन बूथ से मैंने रांची फोन मिलाया और पापा ने दी एक सूचना- एक ट्रक हादसे ने मेरे एक चचेरे भाई को छीन लिया और दूसरे को गंभीर रूप से घायल कर डाला है। पता चला कि इसी बाइपास पर बने अपने क्वार्टर से दोनों बस पान खाने के लिए चले थे। लौट रहे थे कि तेज़ी से आते एक ट्रक ने बिल्कुल घर के बाहर उन्हें ठोकर मार दी। एक लौट कर नहीं आया, दूसरे की स्मृति लौटने में एक बरस लग गया। 
मैं हैरान था। मेरे बचपन की यह सड़क अचानक खूनी और खतरनाक सड़क कैसे हो गई। बाद में किसी ने बताया कि उसी महीने उस सड़क पर चार जानलेवा हादसे हो चुके हैं। 
यह अपने शहर से मेरा नया परिचय था। पहली बार वह सड़क डरा रही थी कि इसे अपना घर मत समझ लो। यहां से गुजरो तो सावधानी से चलो, दाएं-बाएं देखते चलो और सामने वाले की रफ़्तार से डरो। 
इस नई रांची में सिर्फ सड़क चौड़ी और ख़तरनाक नहीं हुई है, मुहल्ले भी दरक गए हैं। इमारतें ऊंची होती जा रही हैं, मन छोटा होता जा रहा है। रास्ता फैल रहा है, वास्ता सिकुड़ रहा है। अगली बार उस मुहल्ले का ज़िक्र, जो हिंडोले की तरह हमें झुलाता और खिलाता रहा।

(तीन) फिर एक खूनी सड़क फिर से एक हादसा
अपने पुराने शहर की पुरानी सड़कों पर चलते हुए जिन कहानियों को मैं खोज रहा हूं, वे लगातार लहूहुलान होती सच्चाई से मुलाकात करा रही हैं। इस सफर की शुरुआत में ही मेरे पांव कांप रहे हैं, मेरा गला सूख रहा है, मेरा गांडीव गिर रहा है। नहीं मैं अर्जुन की तरह मोहग्रस्त नहीं हूं। किसी युद्ध में भी शामिल नहीं हूं। लेकिन बिना किसी युद्ध के अपने सामने मारे जा रहे अपनों को देख रहा हूं।
पिछली बार अपनी एक सड़क के बदलाव की कहानी मैंने लिखी- इस बार एक और सड़क ने बताया कि वह बदल गई है। हरमू हाउसिंग कालोनी को मेकॉन से जोड़ती डिबडिब पुलिया वाली यह सड़क भी मेरे सामने बनी- जहां पगडंडी तक नहीं थी, वहां रास्तों के निशान पड़े, कोलतार बिछी, लोग आने-जाने लगे, गाड़ियां चलने लगीं।
और फरवरी की एक बेख़बर दोपहर, मेरे एक बेख़बर दोस्त अशोक कुमार अंचल ऐसी ही किसी गाड़ी से कुचले गए। 
मुझे उनके नहीं रहने की ख़बर एक दिन बाद मिली- दफ्तर भागने की अफरातफरी के बीच। अचानक कुछ समझ में नहीं आया- जो आया, उसे अफ़सोस से मिला अचरज कह सकते हैं, दुख नहीं। दुख देर से आया, और अपने साथ कई यादें ले आया- आखिरी याद उस फोन कॉल की, जब हमने मिलने का वादा किया। यह बीते साल की बात है। दिल्ली आए अशोक अंचल ने मुझे फोन किया था। मेरे न्योते पर अगली सुबह वे अपनी बेटी पल्लवी के साथ मेरे घर आने वाले थे। साथ नाश्ता और गपशप करने का इरादा था। लेकिन वे नहीं आए, उनका एक एसएमएस आया- किसी काम में फंसे होने की वजह से न आने का खेद जताता और अगली बार आने का वादा करता हुआ। न उन्हें मालूम था न मुझे कि रांची की एक सड़क हमेशा-हमेशा के लिए इस वादे को नामुमकिन बना देगी। 
अशोक अंचल पटना से रांची आए थे- उन हलचल भरे दिनों में जब रांची में रंगकर्म बेहद सक्रिय था। अंचल पटना में नाटक करते रहे थे और अपने साथ एक पेशेवर कुशलता और अनुभव लाए थे। शायद उससे भी ज्यादा आत्मीयता, जिसके सहारे उन्होंने तुरंत रांची के कांटा टोली इलाके में अपना ‘‍‍नाट्यांचल’ बना लिया। इस नई नाट्य संस्था ने इलाके के कई युवा साथियों को जोड़ा- साधना और कल्पना गुचाइत नाम की दो बहनें, गौरी दास और मुक्ता दास नाम की दो सहेलियां, चंदना यानी जापानी, जो बाद में मेरे दोस्त मनोज की पत्नी बनी और तारा प्रसाद..और इन सबके साथ राजेश राज, मनोज जायसवाल, ग्लैडू और मेरा छोटा भाई अनुराग। दो और अभिनेत्रियां- सुषमा केरकेट्टा और अनिता नेहाखलखो। इसी संस्था से निकली अनिता नेहाखलखो बाद में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का हिस्सा बनी और फिलहाल मुंबई में संघर्ष कर रही है। नाट्य संस्था की पहली प्रस्तुति ‘पागलखाना’ शहर में भी सराही गई और राष्ट्रीय नाट्य प्रतियोगिता में भी पुरस्कृत हुई। लेखक और निर्देशक दोनों अशोक अंचल थे।
इस समूचे अफसाने में तब तक मैं शामिल नहीं था। दरअसल अशोक कुमार अंचल से मेरा परिचय बाद में हुआ। बहुत घनिष्ठता का दावा नहीं कर सकता, लेकिन एक-दूसरे को समझने की आत्मीयता हमारे बीच थी। शायद इसी वजह से रांची के बहुत सारे रास्ते जब मुझे अपने लिए अजनबी लगते रहे, तब भी अशोक अंचल के साथ रिश्ते का पुल बना रहा- इसलिए भी कि अशोक अंचल बस एक दोस्त नहीं थे, मेरे लिए करीब २५ साल पुरानी उस धड़कती रांची के ऐसे साझेदार भी थे जिनके साथ होना, जिनको साथ लेना हमेशा सुखद लगता था। जो लोग उन दिनों की रांची को जानते हैं, वे उस दौर में साहित्य-संस्कृति और रंगकर्म के अतिसक्रिय और सरोकार संपन्न माहौल को भूल नहीं सकते। वे राम मंदिर आंदोलन के दिन थे और बाकी शहरों की तरह रांची भी सांप्रदायिक तनाव से जूझ रहा था। उस दौर में हमने कई जुलूस निकाले, जिसके दौरान गाए जाने वाले गीतों में एक गीत अशोक अंचल का भी होता था।
उस दौर का ज़िक्र भी एक बीती हुई रांची का ज़िक्र है जो अनिवार्यतः बाद में आएगा। फिलहाल हमारी आखिरी मुलाकात की चर्चा।
जून २००८ में मैं रांची में था- फुरसत में भी। पुराने दोस्तों से मिलने की उम्मीद और उत्सुकता सहित मैं आकाशवाणी भवन पहुंचा। कुछ मिले और कुछ की खबर मिली। लेकिन मन में अतृप्ति का अहसास बचा रहा। 
फिर बाहर निकलते हुए अचानक एक खनकती हुई आवाज़ ने साधिकार पुकारा- मैंने अचरज से देखा, अशोक अंचल थे।
जिस सहज तृप्ति की तलाश थी, वह जैसे पूरी हो गई। हमने एक चाय की दुकान पर खड़े होकर चाय पी, पुराने दिनों को याद किया, नए बदलावों का जायजा लिया। वह जून का महीना था- हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। रांची की वह जानी-पहचानी और मेरी प्रिय बारिश, जो आपके अनजाने ही आपको भिंगो देती है। तभी हमने एक-दूसरे के फोन नंबर लिए, दिल्ली में मिलने का वादा किया। वही वादा, जो अधूरा रह गया। 
उनके बारे में खबर मिली तो मैंने अपने मोबाइल से उनका नंबर निकाला। फोन मिलाया- क्यों मिलाया, खुद समझ नहीं पाया। मुझे पता था, दूसरी तरफ फोन उठाने वाला नहीं है। फिर मैं किस आवाज़ की, किस उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था? 
कभी अपने भीतर उतर कर इसका उत्तर भी खोजूंगा। फिलहाल अब भी वह नंबर मेरे फोन में ‘सेव’ है। उसे डिलिट करने की हिम्मत नहीं हो रही। लगता है, उसके साथ अपना भी कुछ मिट जाएगा। 
मुझे हमारी अंतिम मुलाकात की अंतिम बारिश याद आ रही है। एक-दूसरे का हाथ थाम और छोड़ हम अलग-अलग रास्तों पर चल दिए थे। चाय की कुछ गर्म मिठास और बारिश की बूंदों की ठंडी स्वादहीनता एक धूपछांही अहसास बना रही थी। वह बारिश अब भी मेरे साथ है।
अशोक अंचल के नहीं रहने का दुख देर से आया, अब तक टिका हुआ है- जानता हूं, किसी को दिखेगा नहीं, लेकिन मेरे भीतर कहीं छुपे रहने की जगह खोज लेगा। इस अंचल के भीतर भी बसा है मेरा अंचल।
(प्रियदर्शन जी के फेसबुक वाल से साभार)

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