Tuesday, 17 May 2016

क्योंकि उसके पास एक भाषा थी

प्रिय दर्शन 
रोहित वेमुला की आत्महत्या हमारे बौद्धिक जगत की एक बड़ी घटना क्यों बन पाई? ऐसा तो नहीं है कि हिंदुस्तान में पहली बार किसी दलित या गरीब ने आत्महत्या की हो? विश्वविद्यालय परिसरों में- और हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के परिसर में भी- तरह-तरह के भेदभाव और उत्पीड़न के शिकार दलित अपने जीवन का अंत करने को मजबूर हुए हैं- इसकी कई कहानियां अब हमारे सामने हैं।

दरअसल रोहित वेमुला का मरना सबने देखा-सुना तो इसलिए भी कि उसे भाषा आती थी। वह अपनी मृत्यु के बाद एक ऐसा पत्र छोड़कर जा सकता था जो बहुत सारे लोगों को भीतर से हिला दे। उसके पास उसके पास ऐसी सघन-संवेदनशील अभिवय्क्ति न होती तो कहना मुश्किल है, उसकी आत्महत्या एक बहुत बड़े तबके के लिए एक राष्ट्रीय हूक में बदल पाती या नहीं। फिर यह भाषा अंग्रेजी थी, इसका भी अपना महत्व है। इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है कि रोहित को अगर अंग्रेजी नहीं आती, सिर्फ हिंदी या मराठी आती और वह अपना ‘स्युसाइड नोट’ ऐसी किसी भाषा में छोड़ गया होता तो क्या उसकी प्रतिक्रिया भी इतनी तीखी होती जितनी अंग्रेज़ी में लिखे उसके आख़िरी पत्र की हुई? यह अनायास नहीं है कि रोहित वेमुला की मौत पर अंग्रेजी पत्र-पत्रिकाओं के मुखपृष्ठ रंगे पड़े हैं। 

यह टिप्पणी उस विशेषाधिकार का नए सिरे से ज़िक्र करने के लिए नहीं लिखी जा रही जिसके तहत देश के आर्थिक-बौद्धिक संसाधनों पर अंग्रेज़ी का कब्ज़ा है और जिसकी वजह से आप अंग्रेजी में किताब लिखें या आत्महत्या की चिट्ठी, वह भारतीय भाषाओं के मुक़ाबले ज़्यादा ध्यान से पढ़ी जाती है, दूर तक पहुंचती है। उस पर कार्ल सागान की पत्नी तक प्रतिक्रिया दे सकती है। यह बात अपनी जगह सच है ही। लेकिन बताने की ज्यादा बड़ी बात यह है कि जब आपके पास भाषा होती है तो आप अपना पक्ष रख पाते हैं।

बेशक, रोहित के पास यह भाषा किसी रणनीति के तहत नहीं थी। उसने अपने संघर्ष से इसे सीखा, अपनी संवेदना से इसे अर्जित किया। कृपया इस वाक्य का अर्थ यह न लगाएं कि उसने अंग्रेज़ी या हिंदी सीखी। अपने अनुभव से हम जानते हैं कि भाषा के बहुत सारे शातिर लोग अपनी कलात्मकता में सबसे पहले भाषा को ही व्यर्थ करते हैं। रोहित के संदर्भ में भाषा हासिल करने का मतलब उस संवेदना से है जो उसने अपने जीवन और संघर्ष से हासिल की और जिसकी तीव्रता ने उसे बनाया और अंततः ख़ुद को नष्ट करने का प्राणांतक रास्ता भी सुझाया। रोहित वेमुला के भीतर यह संवेदना थी इसलिए ऐसी छू सकने वाली भाषा थी जो एक चिट्ठी की शक्ल लेकर देश भर में संवेदनशील लोगों की छाती पर किसी घन की तरह पड़ती रही। 

कल्पना करें कि रोहित वेमुला के पास यह भाषा ज्ञान न होता। तब शायद वह वहां नहीं पहुंचता जहां पहुंच सका था। लेकिन तब शायद वह आत्महत्या का रास्ता भी नहीं चुनता। अगर चुनता भी तो शायद उसकी तरफ़ किसी का ध्यान नहीं जाता। रोहित वेमुला जैसे बहुत सारे लोग हैं जो बिना अपनी बात कहे, बिना कोई चिट्ठी छोड़े, किसी पेड़ पर झूल जाते हैं, कोई जहर खा लेते हैं, किसी हताशा में अपनी जान दे देते हैं। वे सब इस व्यवस्था के अन्याय के मारे हुए हैं। हम उन्हें नहीं देखते- देखते भी हैं तो सिर्फ आंकड़ों की तरह- बताते हुए कि बीते दस साल में इस देश में एक लाख से ज़्यादा किसानों ने खुदकुशी कर ली है। इसके बाद यह बता कर हम ख़ुद को इस अन्याय से बरी कर लेते हैं, क्योंकि कोई चीख हम तक नहीं पहुंचती, कोई रुलाई हमारे कानों तक नहीं आती, कोई चिट्ठी हमें व्यथित करने वाली नहीं लिखी जाती।

लेकिन रोहित वेमुला हमारा पीछा करता रहता है। वह हमारे ही चुने माध्यम में अपनी बात हमसे कहता है। और तब हम पाते हैं कि चुपचाप कितना बड़ा अन्याय हमारे समाज में जारी है। ऐसा नहीं कि इस अन्याय की ख़बर हमें नहीं है, लेकिन रोहित वेमुला हमें इससे आंख मिलाने पर मजबूर करता है।

दरअसल यहां हम पाते हैं कि जो भाषा उसने अर्जित की, वह उसका अभिशाप भी है और वरदान भी। इस भाषा ने उसे महज उत्पीड़न का यंत्र नहीं रहने दिया- वह मनुष्यता प्रदान की, जिसमें वह चीखे, विरोध करे और दूसरों को अपनी बात सुनने को मजबूर करे। लेकिन इसी भाषा ने उसे अपने साथ हो रहे मरणांतक भेदभाव का ऐसा एहसास कराया कि वह सबकुछ छोड़ कर चला गया। बाद में यही भाषा उसे हमारे बीच ज़िंदा रखे हुए हैं। लेकिन जीवन के पार जाकर रोहित वेमुला ने एक चुनौती हमारे लिए भी छोड़ी है- भाषा के पार जाकर उन लाखों-करोड़ों लोगों की तकलीफ़ समझने की, जो मूक भाव से सब झेलते हैं- कई बार बिना यह जाने कि वे झेल रहे हैं- क्योंकि उनके पास अपना कष्ट महसूस करने की, उसे बता सकने की भाषा नहीं होती।
(प्रियदर्शन जी के फेसबुक वाल से साभार)

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