प्रिय दर्शन
सुख्यात गांधीवादी, हिंदी के विलक्षण गद्यकार और हम बहुत सारे लोगों के अनन्य आत्मीय अनुपम मिश्र महीने-दो महीने में एकाध बार ज़रूर फोन करते हैं। यह सिलसिला बरसों से जारी है। जब भी उनका फोन आता है, मैं संकोच से भर जाता हूं- क्योंकि बार-बार वादे के बावजूद न फोन करता हूं और न मिल पाता हूं। लेकिन वे अपने बारे में बहुत ख़ामोश रहते हैं। कम लोगों को मालूम होगा कि इन दिनों वे कैंसर से जूझ रहे हैं। कीमोथेरेपी के अलग-अलग दौर के बीच भी उनकी मृदुल आवाज़ में फोन का सिलसिला जारी है। उन पर न जाने कब से लिखने की सोचता रहा था, लेकिन वह टलता रहा क्योंकि उन पर लिखना कोई आसान काम नहीं है। पिछले महीने तय किया कि जैसा भी संभव हो, लिखूंगा ज़रूर। तो उनकी किताब पर लिख डाला- और यह इस महीने के नया ज्ञानोदय में प्रकाशित हुआ है। अब यहां चिपका रहा हूं, इस आग्रह के साथ कि यह लेख पढ़ें न पढ़ें, अनुपम जी को जरूर पढ़ें।
पर्यावरणविद और गांधीवादी के रूप में सुख्यात लेखक अनुपम मिश्र बरसों से एक और काम अथक किए जा रहे हैं- हमारी भाषा का पर्यावरण बचाने का काम। जब हम सबकी भाषा मौजूदा समय की स्मृतिविहीन आक्रामकता से लगभग प्रदूषित सी हो चली है, तब उनका विनम्र गद्य यह याद दिलाता है कि हिंदी का एक रूप और स्वभाव यह भी है- और यह भाषा का नहीं, उस समाज का भी स्वभाव है जो तेज़ी से छीज रहा है।
स्वाभाविक है कि हिंदी का समाज अपने इस लेखक को सहेज-संभाल रहा है। हर दो-तीन साल पर अनुपम जी की किताब ‘आज भी खरे हैं तालाब’ का कोई नया संस्करण चला आता है। करीब 4 साल पहले आए एक संस्करण में बीते 20 वर्षों के दौरान प्रकाशित संस्करणों का जो मोटा हिसाब-किताब है, उसके मुताबिक तब तक इस किताब की दो लाख से ज़्यादा प्रतियां बिक चुकी थीं। हिंदी में जब पांच सौ और सात सौ से ज़्यादा के संस्करण नहीं होते तो फिर अनुपम मिश्र की इस किताब का जादू क्या है कि उसकी लाखों प्रतियां बिक या बंट रही हैं और तमाम भाषाओं में उसके अनुवाद हो रहे हैं? आखिर हमारी बाकी किताबें इतनी खरी साबित क्यों नहीं होतीं कि उनकी बिक्री के आंकड़े बताते हुए हम कुछ गौरव, कुछ गुमान का अनुभव करें?
इस सवाल का एक जाना-पहचाना जवाब तो हमारी प्रकाशन संस्कृति के उस शैथिल्य में दिखता है जिसकी वजह से न किताबों के उचित प्रचार की कोशिश होती है, न उनके विक्रय की व्यवस्था कराने की। दूसरा जवाब हिंदीभाषी समाज के भीतर हिंदी की लगातार घट रही हैसियत में दिखता है जिसकी वजह से बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजे जा रहे हैं, अंग्रेजी के मामूली लेखकों और पत्रकारों को बड़ी हैसियत हासिल हो रही है और हिंदी की पारंपरिक शब्दावली के बहुत सारे शब्द हेय, त्याज्य और हास्यास्पद माने जा रहे हैं।
लेकिन मैं एक तीसरी वजह की तलाश करना चाहता हूं जिसका वास्ता अनुपम मिश्र की किताब से है। ‘आज भी खरे हैं तालाब’ अंततः क्या करती है? क्या वह भारत में सिर्फ तालाबों की महत्ता पर प्रकाश डालती है या फिर नए तालाबों की खुदाई पर ज़ोर देती है? यह तो वह करती ही है, लेकिन इससे ज़्यादा वह भारत की उस पारंपरिक सामुदायिक जीवन शैली की याद दिलाती है जिसके भीतर राज्य सत्ता का दखल कम था और सामूहिक प्रयत्न की भागीदारी ज़्यादा। गांधी अगर भारत की आज़ादी की लड़ाई के सबसे अचूक योद्धा बन सके तो इसीलिए कि उन्होंने इस सामूहिकता को पहचाना था और समझा था कि तंत्र लोक को कमज़ोर कर रहा है। अनुपम मिश्र दरअसल इसी समझ को एक सामाजिक आयाम देते हैं। उनकी किताब याद दिलाती है कि इस समाज को, इसके इंतज़ामों को सरकारी अध्यादेशों ने आगे नहीं बढ़ाया, उसे उन हाथों ने सहेजा और संभाला जो अपने होने का, अपने हुनर का मतलब समझते थे और अपने समाज से अपनी ताकत ग्रहण भी करते थे, उसे लौटाते भी थे। एक तरह से यह भारत के देशज विवेक को पहचानने की कोशिश है। ऐसा नहीं कि अनुपम मिश्र इस देशज विवेक की बात पहली बार करते हैं। यह बात बार-बार होती है, लेकिन दो बेहद ख़तरनाक बिंदुओं से। एक तरफ, इस विवेक की घोर उपेक्षा होती है और उसे सड़ा-गला, बेमानी मान लिया जाता है और दूसरी तरफ उसका भयानक आभामंडन होता है, बल्कि अक्सर इस आभामंडन के साथ एक सांप्रदायिक दृष्टि भी सक्रिय रहती है।
संभव है, उस देशज विवेक में यह दृष्टि रही हो, यह सांप्रदायिकता न भी रही हो तो वह जातिवाद रहा हो जिसने भारतीय समाज को लगभग एक भ्रष्ट समाज में बदल डाला है, लेकिन जो मौजूदा स्मृतिविहीन आधुनिकता और सरोकारविहीन सरकारी मशीनरी है, उसने कहीं ज़्यादा खतरनाक ढंग से बहुत सारी चीज़ों का नाश कर डाला है। अनुपम मिश्र बहुत संयम और सावधानी से इन दोनों अतियों को उनकी सीमाओं का भान कराते हुए दरअसल एक नई तरह की सामूहिकता का आह्वान करते हैं। लेकिन बस इस आह्वान की वजह से उनकी किताब पठनीय नहीं हो उठती- वह उस काम्य गद्य और विचार के नमूने के रूप में हमारे सामने आती है जो धीरे-धीरे हमसे दूर होता जा रहा है। वह बताती है कि अगर आप अपने समाज से नाभिनालबद्ध होकर कुछ लिखते हैं तो वह लोगों को जोड़ता है। हिंदी के लगातार बढ़ते रेगिस्तान में उनकी किताब, उनकी भाषा एक खरा तालाब है जो हमारी खोई हुई प्यास का सुराग भी देती है और उसे बुझाती भी है।
इस बार उनकी किताब के नए संस्करण के अलावा उनकी एक और किताब मिली, जो कुछ मित्रों के प्रयत्न से छपी है- ‘महासागर से मिलने की शिक्षा’। यह किताब भी दरअसल एक बदले हुए संदर्भ उनके पिछले लेखन का ही विस्तार है। वे बाढ़, पानी और पर्यावरण के संकट के बहाने हमारे समय में लगातार बढ़ रही आत्महंता जीवन शैली के बारे में बोल रहे हैं- किसी उपदेशक शैली में नहीं, बल्कि उस सयाने अनुभवी आदमी की तरह जिसके भीतर सिर्फ कोरा किताबी ज्ञान नहीं है, अतीत की स्मृतियां भी संचित हैं। साफ है कि हिंदी को फिर उसका एक खोया हुआ तालाब मिला है।
(साभार- प्रिय दर्शन भाई के फेसबुक वाल से)
No comments:
Post a Comment