Sunday 30 October 2016

संस्कृति मेले के पीछे क्या है सरकार की मनसा.

आदित्य कुमार 

हमारी सरकार हमेशा से देश की संस्कृति को शीशा बंद और एयर कंडीशन युक्त वाले म्यूजियम में बंद करने की कोशिश करती रही है। मैं जब भी मेट्रो सिटी के संस्कृति मेले में जाता हूँ, तो लगता है कि किसी ने कार्बनडाइऑक्साइड के चेंबर में मुझे पुश कर दिया है। लेकिन किसी भी सरकार के लिये ये ऑक्सीजन का सिलेंडर हीं होता है। आदिवासियों, किसानों और दलितों की बदहाली वाली खबरों को कवर करने के नाम पर मीडिया का कैमरा हैंग कर जाता है, क्योंकि ऐसी खबर सरकार और उद्योगपतियों का सबसे बड़ा स्टिंग है। पिछले दिनों दिल्ली में भारत सरकार द्वारा आयोजित संस्कृति मेले में जब आदिवासी नृत्य पर मीडिया का कैमरा चिपका हुआ था, तो लगा कैमरे पर पत्थर मारकर जम्मू-कश्मीर वाला बदनाम बच्चा बन जाऊं। सरकार अपने राजनीतिक फायदे के लिये हमारे धर्म और संस्कृति को एक पेन ड्राइव के तरह इस्तेमाल करती रही है। इन्हें डिलीट करने के लिये क्लिक का पावर भी नेताओं के हाथ में हीं होता है।

संस्कृति मेले में नेताओं के लाल बत्ती वाले गाड़ी का सायरन एक प्रतिभावान कलाकार के सारंगी की आवाज के धुन को उलझा रहा था, लेकिन जब गाड़ी नजदीक आई तो साइरन ने उसकी धुन को कुचल दिया। पेनड्राइव से प्ले होने वाले टाइप कार्यक्रम में जाने के बाद हमें लगता है हम कितना स्वार्थी और देश की खूबसूरती से अनजान हैं। हाथ में मैट्रो कार्ड पकड़कर ऊंट की सवारी का आनंद लेते हुए मुझे लग रहा था, हाथ से कार्ड फिसलकर ऊंट के खूर में दब जाए। जब मेले में कश्मीर की खूबसूरत लड़की टोकरी में सेब लेकर गुजर रही होगी और कोई सज्जन अपने हाथ में एप्पल फोन लेकर उनके आगे तस्वीर उतारने के लिये
खड़ा हुआ होगा तो फोन में चमक रहे एप्पल के लोगो से उनके आंख में जबरदस्त पीड़ा हुई होगी। यह पीड़ा पतंजलि के दिव्य दृष्टि ड्रॉप से भी ठीक नहीं हो सकती। ऐसे लोग देश की संस्कृति को भी मोबाईल के स्क्रीन पर हीं देखना चाहते हैं, वो भी हाॅलीवुड फिल्मों के बाद मेमोरी में स्पेस बचे तो फेसबुक जर्नलिस्ट टाइप के लोग इन तस्वीरों को पोस्ट करके करवा चौथ और ईद के दिन भी चांद के बदले लाइक और कोमेन्ट के इंतजार होंगे।
संस्कृति मेले में देश के अलग-अलग क्षेत्रों से आए कलाकारों की स्थिति को देखकर लग रहा था कि जिनके हाथों में बीन और बांसुरी पकड़ी गयी है, वो अपने गांव में हाथ में मजदूरी के लिये मनरेगा कार्ड पकड़ने को भी मजबूर होगा। एडास के जूते पहनकर फोटो उतारते साहब टाइप के लोगों को इन गरीब कलाकारों के तलवे की दरारों को भी कैद करना चाहिये। यह तो तय है कि अब इनके खेतों की दरारें मीडिया का कैमरा कैद नहीं करने वाला है। हम जानते हैं कि खेत की दारों के लिये अमिताभ का बोरो प्लस काम नहीं आने वाला है, लेकिन यह इनके इनके एडियों की दरारों तक भी तो नहीं पहुंचेगा। आयोजन में सारंगी, बीन का फोटो अपने कैमरे में कैद करने वाले साहब से अनुरोधे है कि वो अपने बेटे को कंधे पर गिटार की जगह सारंगी लटकाकर कॉलेज भेजे। बीन को देखकर, वॉऊ करने वाली लड़की से रिक्वेस्ट है कि वो गिटार वाले लड़के की तरफ नहीं बीन बजाने वाले लड़के की तरफ आकर्षित हो।

प्लास्टिक के घड़े मे मिनिरल वाटर और सांस्कृतिक कार्यक्रम का स्पॉन्सर एडीडास रिबाक और एपल तो यही बता रहा है कि देश की संस्कृति को एसीड से धोने का खुला एलान हो रहा है। मुझे तो लग रहा था मेले में आदिवासी नृत्य करने के लिये कमर में बांधे जाने वाले पेड़ की पत्तियों को ढूंढने में कड़ी मेहनत लगी होगी। आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन को छिनकर उद्योगपतियों को देने वोली सरकार से तो यही लगता है कि आने वाले समय में संस्कृति का दिखावा करने के लिये वो इन आदिवासियों के नृत्य में पेड़ की जगह प्लास्टिक से बनी पत्तियों का इस्तेमाल करवाऐंगी। पेड तो बचेंगे हीं नहीं पर सरकार और उद्योगपतियों के सहयोग से इस तरह के मेले जरुर लगते रहेंगे जो हमारी चिंता का विषय है।

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