श्रेया उत्तम
पिछले दिनों बस से लौटते समय अहसास हुआ की मैं साँस तो ले रही हूँ पर कोई ऑक्सिजन नहीं बल्कि गाडियो से निकल रहे धुयें को मैं अपने फेफड़ों तक शुद्धीकरण के लिये पहुँचा रही हूँ. दिल्ली में दिवाली के समय प्रदूषण के कारण आँँखो में जलन होने लगती है और आँसू निकल आते है. औद्योगिकीकरण को जितना अधिक बढ़ावा मिल रहा है, वैसे ही पेड़ों की कटाई भी हो रही है. जीवनशैली में बढ़ती उलझनों के कारण परिवारों में टकराव होने से जो अलग रहने का चलन बढ़ा है, उससे दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुयें बढ़ी हैं. हमारी हरी-भरी दुनिया अब गगनचुम्बी इमारतों और इमारतों पर लगे शीशों से टकराकर लौटने वाले सफेद-पीले प्रकाश में बदलती जा रही है. हाँ हमने पेड़ लगाये हैं, उनकी सुरक्षा के लिय गोल बाडे भी लगाये है पर पता है उस में पौधे की स्थिति ठीक वैसी ही है जैसी की चिड़ियाघर में कम भोजन देकर बँद किये गये शेर की होती है.
रास्ते पर फैले पड़े कचरे के ढेर पर से उड़ती सड़न, रंगहीन हवा में घुलता ये काला धुआँ, कटे हुये पेड़ों के सूखे लट्ठे, गंदी नहरें, नदियाँ, ये सब उस समय हमें हमारी प्रकृति को बचाने के लिये सोचने पर हमें मजबूर करते हैं, लेकिन कुछ करने के मामले में हम जाने क्यों पीछे रह जाते है.
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