Monday, 23 January 2017

प्रदूषण का बढ़ता प्रकोप

श्रेया उत्तम 
पिछले दिनों बस से लौटते समय अहसास हुआ की मैं साँस तो ले रही हूँ पर कोई ऑक्सिजन नहीं बल्कि गाडियो से निकल रहे धुयें को मैं अपने  फेफड़ों तक शुद्धीकरण के लिये पहुँचा रही हूँ. दिल्ली में दिवाली के समय प्रदूषण के कारण आँँखो में जलन होने लगती है और आँसू निकल आते है. औद्योगिकीकरण को जितना अधिक बढ़ावा मिल रहा है, वैसे ही पेड़ों की कटाई भी हो रही है. जीवनशैली में बढ़ती उलझनों के कारण परिवारों में टकराव होने से जो अलग रहने का चलन बढ़ा है, उससे दैनिक उपयोग में आने वाली वस्तुयें बढ़ी हैं. हमारी हरी-भरी दुनिया अब गगनचुम्बी इमारतों और इमारतों पर लगे शीशों से टकराकर लौटने वाले सफेद-पीले प्रकाश में बदलती जा रही है. हाँ हमने पेड़ लगाये हैं, उनकी सुरक्षा के लिय गोल बाडे भी लगाये है पर पता है उस में पौधे  की स्थिति ठीक वैसी ही है जैसी की चिड़ियाघर में कम भोजन देकर बँद किये गये शेर की होती है.
रास्ते पर फैले पड़े कचरे के ढेर पर से उड़ती सड़न, रंगहीन हवा में घुलता ये काला धुआँ, कटे हुये पेड़ों के सूखे लट्ठे, गंदी नहरें, नदियाँ, ये सब उस समय हमें हमारी प्रकृति को बचाने के लिये सोचने पर हमें मजबूर करते हैं, लेकिन कुछ करने के मामले में हम जाने क्यों पीछे रह जाते है.

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