अपूर्वा
महिला दिवस के मौके पर हर साल अखबारों के पन्ने महिला सशक्तिकरण जैसे उदाहरणों से रंगे मिलते हैं और न्यूज़ चैनलों पर बहुत सी हस्तियां अपने विचार रखती नजर आतीं हैं। अगर हम बात करे हिन्दू धर्म शास्त्रों की जिसमें महिलाओं का स्थान और नियम-कानून उनके पक्ष में नही है। शस्त्रों के अनुसार स्त्री धन, विद्या और शक्ति की देवी है, लेकिन उन्ही शस्त्रों में उसे बराबरी का स्थान प्राप्त नहीँ है। जहाँ मनु संहिता के तीसरे अध्याय के छप्पनवें श्लोक में लिखा है 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः' अर्थात जहाँ नारियों की पूजा होती है वहां देवता भी वास करते हैं तो वही पर मनुशास्त्र के दूसरे और पांचवे अध्याय के 155 वें श्लोक में लिखा है 'स्त्री का न तो अलग यज्ञ होता है, न व्रत होता है और न उपवास। ऋग्वेद में तो यहाँ तक भी लिखा है कि पुत्री का जन्म दुःख की खान है और पुत्र आकाश ज्योति सामान है । जहाँ हिन्दू धर्म शास्त्रों में महिलाओं की यह स्थिति है तो इस्लाम में भी महिलाओं की स्थिति कुछ अच्छी नही है। कुरानशरीफ के आयात (1-4-11) में स्पष्ट लिखा है 'एक मर्द के हिस्से के बराबर है दो औरत का हिस्सा' है।
उस वक्त महिलाओं की स्थिति दयनीय थी। मनुस्मृति महिलाओं को किसी प्रकार की आजादी नही देता था। 'हीरो' की तरह उभरे डॉ भीम राव आंबेडकर न अपने दलित समाज की परिस्थितियों के सुधार के लिये कई कदम उठाये। समाज के उत्थान के लिये उन्होंने जी तोड़ मेहनत तब तक की जब तक वह अपने लक्ष्य तक पहुँच नही गये। उनका मानना था कि महिलाओं को जबतक बराबरी का हिस्सा नही मिलेगा चाहे वह समाज में हो, संविधान में हो या पैतृक संपत्ति में हो तबतक महिलाओं की स्थिति ऐसी ही रहेगी। आज़ाद भारत में महिला सशक्तिकरण के विमर्श में गांधी जी कहा करते थे 'जब तक आधी मानवता के आँखों में आंसू है, मानवता पूर्ण नही कही जा सकती। एक बार एक फ़्रांसिसी लेखक ने कहा था "अगर आप मुझसे यह जानना चाहते हैं कि कोई राष्ट्र कैसा है या कोई सामाजिक संगठन कैसा है, तो मुझे यह बताइये की उस राष्ट्र की महिलाओं की स्थिति कैसी है।"
1951 में प्रथम प्रधानमन्त्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के मंत्रीमंडल में केंद्रीय कानून मंत्री के रूप में भीम राव अम्बेडकर ने संसद में हिन्दू कोड बिल पेश किया परंतु लाख कोशिशों के बाद भी धर्म का चोला ओढ़े सांसदों ने इस बिल का विरोध किया लिहाजा यह बिल पारित नही हो सका। बी.आर अम्बेडकर यह बात समझ चुके थे कि स्त्रियों की स्थिति सिर्फ ऊपर से उपदेश देकर नही सुधरने वाली, कानून में उसके लिए व्यवस्था करनी होगी।
डॉ. अम्बेडकर के हिन्दू कोड बिल में निम्नलिखित बिंदु थे :-
1.यह बिल हिन्दू स्त्रियों की उन्नति के लिए प्रस्तुत किया गया है।
2 स्त्रियों को तलाक देने का अधिकार।
3 तलाक मिलने पर गुजारा भत्ता मिलने का अधिकार।
4 एक पत्नी के होते हुए दूसरी शादी न करने का अधिकार।
5 गोद लेने का अधिकार।
6 बाप दादा की सम्पत्ति में हिस्से का अधिकार।
7 स्त्रियों को अपनी कमाई पर अधिकार।
8 लड़की को उत्तराधिकारी का अधिकार।
9 अंतर्जातीय विवाह करने का अधिकार।
बी. आर. अम्बेडकर ने स्थिति में सुधार लाने के लिए दो मुख्य अखबार 'मुकनायक' और 'बहिष्कृत भारत' नामक पत्रों की स्थापना की थी जिसमें महिला सशक्तिकरण मुख्य केंद्र था।
25 दिसम्बर 1927 को एक सांस्कृतिक सीख देते हुए वह कहते हैं कि 'अपने आपको कभी अछूत मत समझो। स्वच्छ जीवन जियो। सवर्ण महिलाओं की तरह कपडे पहनो यह मत देखो कि तुम्हारे कपड़ो में जगह जगह चिंगलियां लगी है, बस यह देखो की वे साफ़ तो हैं। कपडे चुनने और गहनों में धातु के इस्तेमाल की तुम्हारी आजादी पर कोई रोक नही लगा सकता। वह कहते हैं कि शिक्षा औरतों के लिए उतनी ही जरुरी है, जितनी मर्दों के लिए।'
शिक्षा किसी वर्ग की बपौती नही है। इस पर किसी एक वर्ग का अधिकार नही। समाज में प्रत्येक वर्ग को शिक्षा का सामान अधिकार है। उसपर किसी एक वर्ण का अधिकार नही। नारी शिक्षा पुरुष से भी अधिक महत्पूर्ण है। चूंकि पूरी पारिवारिक व्यवस्था की धुरी नारी ही है। उनका मानना था कि किसी भी स्वतः समाज के लिए उसे एक दायरे या कतार में रखने के समान सामाजिक कायदे कानून होने चाहिए ताकि वह उनका पालन करते हुए अपना अस्तित्व बनाये रखे।
धार्मिक आस्था और महिलाओं को कमजोर बनाकर रखने का ही परिणाम था कि 8 मार्च 1535 को चित्तौड़गढ़ की रानी कर्णवती सहित अन्य नारियों को जौहर की चिता में प्राणों की आहुति देनी पड़ी। मध्यकाल की नायिका मीराबाई ने जब महल से बाहर कदम निकाला तो उसे जहर देकर मार डाला गया। 20वीं सदी की शुरुआत में मैडम कामा तथा सरोजिनी नायडू ने मातृशक्ति का बयान करते हुए चेतावनी दी थी की याद रखो जो हाथ पालना झुलाते है वह दुनियां पर राज करते है। 21वी सदी का आधुनिक समाज में नारी के परिवार के भीतर उत्पीड़न आज भी मौजूद है। 'विकास' के नाम पर स्त्रियों का शोषण, दमन, और उनके विरुद्ध हिंसा होती है। हिंसा कोई भी हो चाहे मानसिक या शारीरिक दोनों ही महिलाओं को तोड़ देती है। एक लंबे समय की कोशिशों के बाद अब जब महिलाओं को पढ़ने और अपने फैसले खुद लेने का हक़ मिला है तब उसे सशक्तिकरण का पाठ पढ़ाया जा रहा है जो असली सशक्तिकरण से बहुत अलग है।
चाहे वह बलात्कार हो या चाहे एसिड अटैक की घटना अंत में महिला को ही पिसना पड़ता है जहाँ एक तरफ इन घटनाओं के बाद पूरा समाज उनके पक्ष में कैंडल मार्च करता है नारे लगता है वही पर उसी और वही समाज उनकी तरक्की का रोड़ा बनता है। ढ़ेरो योजनायें चलायी जा रही है बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, सेल्फी विद डॉटर, सुकन्या समृद्धि योजना आदि। लेकिन शायद अकेला संविधान या क़ानून लोगों की मानसिकता नहीँ बदल सकता। क़ानून में महिलाओं को हक़ दिला देना शायद आज काफी नही है जरुरी है सोच बदली जाए।
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