Thursday, 30 May 2019

रम्माण, ढोल और फिओलि दास

डॉ सच्चिदानंद जोशी 
उत्तराखंड के जोशी मठ जाते हैं तो उस से कुछ दूरी पर खूबसूरत वादियों के बीच बसे है गांव सलुड और डूंगरा। वैसे देखने में ये गांव वैसे ही हैं जैसे उत्तराखंड के और पहाड़ी गांव। घुमावदार रास्ते, सीढ़ीदार खेत, आलू और गेहूं की खेती और पशुपालन। लेकिन अपनी खास परंपरा और सांस्कृतिक धरोहर के कारण ये गांव आज यूनेस्को की वैश्विक धरोहर में शामिल है, और वो है रम्माण की परंपरा। वैसे उत्तराखंडा का ये पूरा इलाका अपने मठ, मंदिरों के लिए जाना जाता है, लेकिन रम्माण की अपनी अलग पहचान है।

इस सम्पूर्ण क्षेत्र की रक्षा करने वाले भूमिक्षेत्रपाल और भूमियाल देवता यहां के इष्ट देव हैं। हर वर्ष वैशाख माह में रम्माण का आयोजन होता है। इसका आयोजन पूरे विधि विधान से होता है । आकर्षक रंग बिरंगी परिधान और बड़े-बड़े मुखोटों के साथ विभिन्न पौराणिक आख्यानों पर नृत्य होता है। ये आख्यान भी यहां की अपनी लोक परंपरा में से निकल कर अपने अलग ही रूप में नज़र आते हैं। यह एक अनुष्ठानिक नृत्य है जो पांच दिन चलता है। इसमे भूमिपाल देवता की पूजा से प्रारंभ कर सूर्य देव, गणेश देव, गुन्ना गुंन्नी नृत्य, बूढ़ा देव राधा नृत्य, मवार मवारिन नृत्य जैसे कई प्रकार हैं। 

यह एक महत्वपूर्ण अनुष्ठान है लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब ये परंपरा लुप्त होने की कगार पर आ गयी और कुछ बुजुर्ग ही बचे रह गए रम्माण करने वाले। नई पीढ़ी को न उसका ज्ञान था न अभिमान। तभी 2008 में इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के जनपद संपदा विभाग ने इसे पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। प्रो मौली कौशल के मार्गदर्शन में यहां परियोजना प्राररम्भ हुई। 2009 में यूनेस्को ने इसे वर्ल्ड हेरिटेज घोषित किया। यहां के निवासी कुशल भंडारी के नेतृत्व में रम्माण के लिए युवाओं को प्रशिक्षण दिया गया। इस पर शोध हुए, चर्चाएं हुई और इसका प्रलेखिकरण भी हुआ। आज रम्माण की एक नई पीढ़ी तैयार है। 2016 की गणतंत्र दिवस परेड में इसकी झांकी प्रस्तुत हुई। रम्माण को एक नया जीवन मिला।
रम्माण के इसी नए रूप को देखने सलुड डूंगरा जाने का अवसर मिला। मुख्य मार्ग से कच्चे कटावदार पहाड़ी रास्ते पर 10-12 किलोमीटर जाने पर आप वहां पहुंचते हैं। साथ आये सज्जन बताते है कि ये रास्ता अभी बना है। यानि 2008 में शोधकर्ताओं ने यहाँ तक की दूरी कैसे तय की होगी आप सोच सकते हैं। मंदिर में जाने का रास्ता तो और भी कठिन है। लेकिन आज वहां यूनेस्को, आईजीएनसीए तथा जिला प्रशाशन के सहयोग से नया मंदिर भवन, प्रदर्शन स्थल और संग्रहालय है। यही सारे पारंपरिक मुखौटे, ढोल, वस्त्र और उपकरण हैं। इन मुखौटो की नियमित पूजा होती है। 

रास्ता कठिन था, उस पर मौसम का बदलता मिजाज़, लेकिन जिस तरह ग्राम वासियो और स्कूल के बच्चों ने स्वागत किया और जिस तरह स्कूल के बच्चों ने रम्माण के कुछ दृष्य प्रस्तुत किये तो ऐसा लगा कि आने का सारा श्रम सार्थक हो गया। बच्चों को तैयार करने में इस परंपरा से जुड़े सभी वरिष्ठजनों ने अच्छी खासी मेहनत की थी। कुछ ऐसे बुजुर्गों से भी मिलना हुआ जिन्होंने वर्षो तक इस परंपरा के निर्वाहन में अपनी भूमिका निभाई थी, ढोल वादक के रूप में, जागर के रूप में।


वही ग्राम वासियो की भीड़ में एक चेहरा ऐसा भी था जो सूरत शक्ल में उनसे बिल्कुल अलग था लेकिन ऐसे घुल मिल गया था मानो उन्ही के बीच का हो। उस विदेशी व्यक्ति के बारे में जानने की उत्सुकता हुई। ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। आयोजको ने उनका मंच से परिचय कराया स्टीफन फियोली इस नाम से। साथ ये भी कह दिया कि "अब ये हमारे फियोली दास हैं"। उन्हें देखकर उत्सुकता तो थी अब नाम सुनकर और बढ़ गयी। तभी मंच से घोषणा हुई कि अब स्टीफन जी ढोल बजायेंगे जिसकी शिक्षा उन्होंने हमारे ढोली श्री गरीब दास जी से ली है। हमारी उत्सुकता चरम पर थी।

स्टीफन जी ने गरीब दास जी से ढोल लिया गले में लटकाया ,फिर गुरु गरीब दास जी को प्रणाम किया और रम्माण की शैली में करीब पांच मिनिट ढोल बजाया। जब उनका बजाना बंद हुआ तो तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अपने गुरु से पैर छूकर उन्होंने आशीर्वाद भी लिया। स्टीफन उर्फ फियोली दास जी के बारे जानने की उत्सुकता इतनी बढ़ गयी कि कार्यक्रम समाप्त होने के बाद उन्हें पकड़ कर बैठा लिया अपने पास। जो कुछ उन्होंने बताया वो आश्चर्यजनक और प्रेरणादायक था। वे अमेरिका निवासी हैं। बचपन में कभी अपने पिता के
साथ इस इलाके में आये थे। तब से इस इलाके के बारे में और यहां की ढोल परंपरा के बारे में आकर्षण जगा। बड़े हुए तो सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी में एथनोमुसिकोलॉयजी में एसोसिएट प्रोफेसर हो गए। लेकिन यहां का आकर्षण बना रहा और फिर उन्होंने ढोल पर शोध प्रारम्भ किया। ढोल प्रमुख वाद्य है लेकिन ढोल वादकों को जैसी प्रतिष्ठा और संरक्षण मिलना चाहिए नहीं मिलता। कही कही इसमे जाति विभेद भी सामने आ जाता है। स्टीफन सन 2000 में पहली बार शोध की दृष्टि से यहाँ आये और फिर बार-बार आते रहे। अभी भी कई महीनों से यहाँ हैं। अंग्रेजी के साथ हिंदी और गढ़वाली अच्छी बोल लेते हैं। हिंदी इतनी अच्छी बोलते हैं कि अब उनकी हिंदी में गढ़वाली झलक साफ दिखती है। रम्माण पर और ऐसे अन्य लोक परंपरा के नृत्यों पर शोध कर रहे हैं जिसमें  ढोल का प्रयोग होता है। आयोजको ने हमारे लिए विशेष गढ़वाली ग्रामीण खाना बनाया था। मंडुआ की रोटी, लेंगड़े की साग, राजमा, पुदीना चटनी और गाय के दूध का दही। स्टीफन ने हमारे साथ न सिर्फ चाव से खाना खाया बल्कि हमे उसकी विशेषता के बारे में बताया। मज़ाक में बोले "इतना शुद्ध पौष्टिक खाना हमे हमारे देश में भी नहीं मिलता। मेरी तीन साल की बेटी यहाँ इस गांव में छह माह रही और अच्छी मोटी हो गयी।"

स्टीफन बता रहे थे और हम सिर्फ उनकी बातों को सुनकर चकित हो रहे थे। कैसे कोई व्यक्ति सिनसिनाटी यूनिवर्सिटी से आता है और ढोल के शास्त्र, प्रयोग का अध्ययन करते हुए यही के परिवेश में रच बस जाता है। स्टीफन का शोध अभी जारी है। उसका अकादमिक मूल्यांकन तो विशेषज्ञों का काम है। लेकिन उनका मानवीय पक्ष और हमारी धरोहर के प्रति सम्मान अनुकरणीय है। साथ ही ये हमे अपने अंदर झांकने पर मजबूर भी करता है। यदि हम ऐसे ही अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और अपनी धरोहर से मुँह मोड़ते रहे और अपनी आने वाली पीढ़ी मैं इसके प्रति अभिमान पैदा नहीं किया, प्रेम पैदा नहीं  किया तो फियोली दास जी जैसे विषेषज्ञों को ही मदद के लिए बुलाना पड़ेगा। स्टीफन फिओलि दास जी के जज्बे को सलाम!
(यह टिपणी इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के सदस्य सचिव डॉ सच्चिदानंद जोशी के फेसबुक वाल से साभार लिया गया है) 

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