Friday, 12 February 2021

मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे


सब कुछ वैसा ही था जैसा होता है किसी नाटक के अंत मे। सारे कलाकार अपने काम खत्म कर बाहर आकर मिलते है अपने मित्रों से , अपने प्रशंसकों से। चर्चा करते है अपने काम की और अपना अनुभव बांटते है इस नाटक में काम करने का। और इस नाटक के सूत्र संचालन करने वाला निर्देशक वहीं पीछे ग्रीन रूम में बैठा अगले नाटक की तैयारी में व्यस्त हो जाता है।

थोड़ी देर पहले ही सब मिल कर वहाँ गा रहे थे "मोको कहाँ ढूंढे रे बंदे"। हौसला दिखाते एक दूसरे को दिलासा देते कह रहे थे " जरा धीरे गाड़ी हांको मोरे राम गाड़ी वाला" । लेकिन कितनी देर रोक पाते गाड़ी वाले को। हंस को उड़ना ही था अकेले। "उड़ जाएगा हंस अकेला " गाते गाते हम सबके सूत्र संचालन करने वाले बंसी जी अपनी दूसरी सृष्टि रचने चले भी गए। हम सब बाहर निकल रहे थे और हमारे निर्देशक बंसी कौल वहीं हमसे पीछे छूट गए थे या हम उन्हें छोड़ आये थे। संतोष इतना ही था कि हम सबके साथ बंसी जी थे, किसी के साथ थोड़े किसी के साथ ज्यादा। कबीर की पंक्ति पूरी होती है "मैं तो तेरे पास रे"। लगता है कि बंसी जी कहीं नही गए हैं, हमारे पास में ही हैं।
समझ मे नही आ रहा था कि कौन किसको दिलासा दे। समझ मे नही आ रहा था कि किसका दुःख ज्यादा बड़ा है। सभी के लिए ये पल भारी थे। किसी नाटक की शुरुआत में जैसा दिल धड़कना चाहिए वैसा अब धड़क रहा है, "दादा के बाद अब क्या होगा हमारा?"
बंसी जी से पहली बार कब मिले ठीक से याद नही शायद 1983-84 में। बंसी जी एल बी टी में आते थे । मेरे गुरु प्रभात दा (प्रभात गांगुली) की बंसी जी से नोक झोंक चलती रहती थी। वे गुल दी (गुल वर्धन) के लाडले थे इसलिए प्रभात दा भी उन्हें ज्यादा कुछ बोल नही पाते थे। लेकिन दोनो का ही गुजरा बंसी जी के बिना नही हो पाता था। हमारा झुकाव भी चूंकि प्रभात दा की ओर था लिहाज़ा बंसी जी से ज्यादा बात नही हो पाती थी।
इसलिए जब 1985 के फरवरी माह की एक शाम प्रभात दा ने कहा "नंदू, बंसी एक नाटक कर रहा है। उसमे तुम्हे रोल करना है। " तो आश्चर्य हुआ। बात तो थी कि प्रभात दा कोई प्ले करेंगे जिसमे रोल करना होगा। लेकिन अब दादा खुद कह रहे हैं कि बंसी के नाटक में रोल करना होगा।
उसके बाद बंसी जी से मुलाक़ात गहरी हुई। और एक बार जो गहरी हुई तो होती चली गयी। नाटक तो उनके साथ एक ही किया "मोची की अनोखी बीवी" , जो 'रंग विदूषक' का पहला नाटक कहा जा सकता है। लेकिन उस नाटक की कई सारी महत्वपूर्ण उपलब्धियां है। सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण तो ये कि उस नाटक से जीवन साथी के रूप में मालविका मिलीं । साथ ही कई ऐसे दोस्त जिनसे आज भी दोस्ती और भाईचारा कायम है ठीक उसी तरह जैसा 1985 में था। और बंसी जी का जीवन भर का साथ मिला एक गाइड के रूप में।
जीवन के हर मोड़ पर बंसी जी का साथ मिला और उनकी हौसला अफ़जाई से हमेशा हिम्मत मिली बड़े से बड़ा काम करने की।
कई बार कहते "तुम्हे मैं अगले प्ले में लेकर स्टेज पर एक्रोबेटिक्स करवाऊंगा। " ये मज़ाक भी होता और धमकी भी। मैं भी बेफिक्री से कहता "ये नटों वाले नाटक नही होंगे मुझसे। कभी कोई ग्रीक नाटक करना तो बुला लेना। "
भोपाल में कोटरा सुल्तानाबाद में हमारे घर नज़दीक थे और अक्सर उनका हमारे यहाँ या हमारा उनके यहाँ जाना हो जाता था। मालविका पर तो उनका स्नेह था ही वैसा ही वात्सल्य भरा स्नेह उन्होंने शांतनु , दुष्यंत पर भी लुटाया। शांतनु तो उनके घर को अपना ही घर समझता और जब तब उनके यहाँ जा बैठता।
हमने चाहे घर बदले या शहर बंसी जी का साथ हमेशा मिलता रहा। कभी कभी छह महीने बात नही होती थी । लेकिन लगा नही कि कोई गैप हो गया। न संबंधों की ऊष्मा कम हुई न भावनाओ का ज्वार।

जब भी उनके पास बैठो तो लगता था कितना भंडार है इनके पास ज्ञान का अनुभव का। ऐसा लगता कि बस लेते ही जाओ। इसलिए सानिध्य का कोई अवसर नही गँवाया। 'रंग विदूषक' की भी समिति में रहा काफी साल।
प्रभात दा और फिर गुल दी का जाने के बाद एल बी टी के ट्रस्टी के रूप में भी उनका साथ देने का सुयोग बना।
हाँ पिछले कुछ दिनों में उनसे बहुत ज्यादा बात होती थी, कोरोना काल मे कलाकारों को लेकर और एल बी टी के भविष्य को लेकर । कितनी बार प्रत्यक्ष और कितनी बार फोन पर उनसे बात होती और सारी बात घूम फिरकर दो बातों पर आ जाती एक "हम अपने कल्चर को लेकर क्या कर रहे हैं " और दूसरी "एल बी टी को हम कैसे आगे ले जा सकते हैं।" ऑनलाइन व्याख्यान की श्रृंखला हो "कथा वाचन" या "लोक कला में लोक तत्व" या फिर ऑनलाइन फेस्टिवल हो बंसी जी की न सिर्फ शिरकत होती बल्कि शिद्दत से जुड़ाव भी होता।
बंसी जी को शायद ही किसी ने हताश , निराश देखा हो। जितनी चुनोतियाँ उन्हें झेलनी पड़ी बहुत कम लोगो को झेलनी पड़ी होंगी। लेकिन उनके हौसले और हिम्मत की दाद देनी होगी कि वे इन सबसे हंसते मुस्कुराते निकल जाते । शायद इसलिए वे कइयों की ईर्ष्या का पात्र भी बने।

पता नही किसकी बुरी नज़र लग गयी उन्हें। वर्ना जो आदमी आपसे तीन चार महीने पहले तक लगभग रोज आपसे बात करता हो कभी इंटरनेशनल फेस्टिवल की तो कभी कल्चरल इकॉनमी की, वह अचानक इतना बीमार कैसे हो सकता है और हमे छोड़ कर जा कैसे सकता है। इन तीन चार महीनों में शरीर और मन से उनका टूटना बार बार मन को कचोटता है कि ऐसा कैसे हो गया, क्यों हो गया। सबको हंसने के लिए प्रेरित करने वाला, ज़िंदगी को खुशियों से तौलने वाला , मायूस होकर कैसे हमे छोड़ कर चला गया।
चार्ली चैपलिन ने कहा था "I always like walking in the rain so that no one can see me crying "
बंसी जी के इन आखरी दिनों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है मैंने उन्हें बारिश में चलते भी देखा है और उनके आंसुओ को भी। इसलिए मन होता है एक बार दौड़ कर उनके पास जाऊं और उन्हें भींच कर कहूँ
" चिंता मत कीजिये दादा हम सब हैं न । "
"My smile turns into laughter. Laughter celebrates the miniscule cosmic interval between birth and death. In laughter I see celebration and protest at once. It becomes force to cut through every form of negativity. Therefore, laughter must be celebrated!"
– Bansi Kaul
(डा सच्चिदानंद जोशी जी के फेसबुक पेज से साभार)

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