विश्व कविता दिवस पर एक प्रयोग आपके लिए प्रस्तुत है,कविता को पार्श्व संगीत और लय के साथ प्रस्तुत करने का। मेरे मित्र संगीतकार आनंदाजित गोस्वामी कविता पाठ करते समय मेरे पास बैठे थे । कविता सुनते सुनते उनकी उंगलियां गिटार पर दौड़ने लगी और इस कृति का जन्म हुआ । दुष्यंत ने इसे अपने कैमरे में कैद कर लिया।
यह कविता जिसका शीर्षक "सुलगती जिंदगी" है मेरे ताजा संग्रह " मैदान मत छोड़ना " से ली गई है।
सुलगती जिंदगी
सुलग रही है जिंदगी धीरे धीरे
गीली लकड़ियों की तरह
गल रहा है समय धीरे धीरे
उद्दंड हिम शिखरों की तरह।
नमी अपनी हद से गुजर कर
बन गई है बर्फ की सतह
जंगल उजड़ कर होने लगे हैं
सुनसान बियाबान की तरह।
समुद्र भी सूखता ही जा रहा है लगातार
खेत तब्दील होने लगे हैं रेगिस्तानों में
झरने खोते जा रहे हैं अपनी रौनक
नदियां बस बह रही हैं गर्म लू की तरह।
शक्लें अब तब्दील होने लगी है वीराने में
घंटो के हिसाब से बदल रही है फिजा अब जमाने में
दूरियां इतनी कि नजदीकियों ने खो दिए हैं अपने मानी
इंसान भी अब नहीं रहता इंसानों की तरह।
पता नही कहां है ठौर और कहां है मंजिल
पता नही कहां है किनारा और कहां है साहिल
भटक रहे हैं हम इस मृगतृष्णा में दिशाहीन
कस्तूरी की खोज में गाफिल हिरन की तरह।
सुलग रही है जिंदगी धीरे धीरे
गीली लकड़ियों की तरह।
(डॉ सचिदानंद जोशी के फेसबुक वाल से साभार)
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