करुणानयन चतुर्वेदी
सावरकर इस देश में स्वातंत्र्यवीरों में सबसे विवादित रहें हैं। यह देश की विडंबना ही रही है कि पूरे स्वतंत्रता संघर्ष को केवल कुछ लोगों की वजह से ख़्याति प्राप्त हुई। इसके पीछे तमाम कारण रहें होंगे। जिसके बुनियाद में इस शख़्सियत के योगदान को स्वतंत्रता पश्चात के नेहरूवादी इतिहासकारों में नगण्य दिखाने की कोशिश की। ऐसे तमाम क्रांतिकारी हुए जिनके योगदान को भुला दिया गया। शायद वह कथित सभ्य इतिहासकारों के कलम के नीचे फिट नहीं बैठते होंगे।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि सावरकर एक प्रभावाशाली स्वतंत्रता सेनानियों एक रहें हैं। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। 'वह देशभक्त , लेखक और बौद्धिक तौर पर असाधारण विद्वान के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में दिखते हैं'।
भारत में ब्रिटिश शासन की दमनकारी नीतियों के विरुद्ध, जब 1857 की क्रांति का प्रस्फुटन हुआ। तो अंग्रेज़ी हुकूमत ने इसे मामूली विद्रोह की संज्ञा प्रदान की। परन्तु विनायक ने इसे 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम' की उपमा से नवाज़ते हुए इस पर एक किताब लिख डाला। लंदन शिक्षा प्राप्ति के समय , यह विनायक ही थे, जिन्होंने इंडिया हाउस में विद्यार्थियों के एक जत्था का गठन किया। जोकि अंग्रेज़ी हुकूमत से सशस्त्र क्रान्ति को प्रेरित हुआ था।
"सावरकर का जीवन सच में असाधारण रहा है"। उग्र क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उन्हें ब्रिटिश सरकार के लिए खतरा बताया गया और जिस तरीके से उन्होंने ब्रिटेन से पलायन किया वह अपने आप में अद्भूत प्रसंग है। भारत भेजे जाते समय फ्रांस के तट पर भागने की कोशिश करना और असफल होकर फिर गिरफ़्त में आ जाना। जिसके बाद उनके ऊपर विश्व प्रसिद्ध मुकदमा चलाया जाना। यह सभी प्रकरण बेहद रोमांचक और आंदोलित करने वाले हैं। इसके बावजूद भारत आने पर जेल से ही स्वतंत्रता संघर्ष में उत्साहपूर्वक कार्य करना यह केवल सावरकर जैसा व्यक्तित्व ही कर सकता है।
अंग्रेज़ी सरकार के दो पच्चीस वर्षीय आजीवन कारावास के दोषी के रूप में 'ग्यारह वर्षों तक अंडमान में सेल्युलर जेल में कैद रहे'। पशुवत रूप से कोल्हू के बैल की तरह उनको जोता गया, मानसिक और शारीरिक रूप से थका देने वाली यंत्रणा दी गयी, बेरहमी से पिटा गया, उचित भोजन भी नहीं उपलब्ध कराया गया।
अन्य कैदियों के उत्साह को तोड़ने के लिए विनायक को कठोर एकांतवास की सज़ा से भी गुज़रना पड़ा। राजनीतिक कैदियों को मिलने वाली सुविधाओं से भी वंचित रखा गया। 'इसके बावजूद उनका विश्वास अडिग नहीं हुआ'। आज के भारत में प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानियों में - 'गांधी, नेहरू, पटेल' आदि को इस प्रकार की यंत्रणा और बर्बरता वाली सज़ा तो नहीं ही मिला है। जो व्यक्ति एकांत कोठरी में बंद हो और उसके साथी कैदी फांसी पर लटका दिए जा रहें हो । ऐसे समय में कब उसका नंबर आ जाए यह उसको भी ज्ञात न हो उसको बावजूद उसका जेल में भी लोगों को शिक्षित करते रहना यह उनके महान व्यक्तित्व को दिखाता है।
देश में जब गांधी और अम्बेडकर का राजनीतिक रूप से उदय नहीं हुआ था। उस कल में सावरकर ने हिन्दुओं में अष्पृश्यता के अंत पर जोर दिया। जातियों में विभक्त हिंदुओं को एकीकृत करना शुरू किया। बौतर ब्राह्मण परिवार से ताल्लुक रखने वाले सावरकर ने तथाकथित अछूत समझी जानें वाले लोगों के घर भोजन तक किया। जिससे की हिन्दू एकता को प्रोत्साहन मिले।
'इसे त्रासदी ही कहा जा सकता है कि 1966 में सावरकर की मृत्यु के बाद हमारे स्वतंत्रता संघर्ष और इतिहास की असली कहानियों पर वामपंथी विवरण हावी हो गए'। राष्ट्रवादियों के तथ्यों को धता बता दिया गया। लम्बे समय तक स्कूली पाठ्यक्रमों में एकपक्षीय प्रस्तुतिकरण करके सावरकर के योगदान को नगण्य घोषित किया गया।
जहां अंग्रेजों ने उन्हें 'एक ख़तरनाक , राजद्रोही शक्ति' कहा तो वहीं नेहरूवादी और वामपंथी इतिहास लेखन ने
उन्हें 'कायर देशद्रोही' ठहराया। लेकिन इन इतिहासकारों ने इंदिरा गांधी द्वारा सावरकर के सम्मान में कहे गए शब्दों , "सावरकर द्वारा अंग्रेजी सरकार को दी गयी चुनौती का स्वतंत्रता अभियान में अपना स्थान है', के बावजूद उन्हें मरणोपरांत अपशब्द कहकर अपमानित किया ।
विक्रम सम्पत ने सावरकर के जीवनी पर अप्रत्याशित शोध किया है। जिसके कारण समाज में तथाकथित विवेक सम्मपन इतिहासकारों के महिमामंडित आवरणों से पर्दा उठा है। नए भारत के शोधार्थियों और इतिहासकारों के समक्ष श्री सम्पत ने एक उदाहरण पेश किया है कि कैसे वह भारत के हालिया इतिहास में राजनीतिक तौर पर 'स्वीकृत रचना' में निहित झूठ और चालाकी को धता बताते हुए हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के अनेक नायकों की प्रेरणास्पद कथाएं सामने ला सकते हैं। जिनकी छवियों को जान-बूझकर दरकिनार और मलिन किया जाता है। सावरकर जैसे सच्चे देशभक्त और स्वतंत्रता सेनानियों के सच और कार्यों को सभी भारतीयों को उपलब्ध कराना चाहिए ताकि वह स्वयं हमारे साझा इतिहास पर उनके असर का आकलन कर निर्णय ले सकें।
विक्रम की सावरकर पर जीवनी दो खंडों में है। पहला उनके बचपन से लेकर , क्रांतिकारी बनने और जेल जाने तक के वर्षों को हमारे समक्ष पेश करता है। 1883-1924 तक के सावरकर के व्यक्तित्व को जान चुका हूं। शेष खंड को भी जल्द समाप्त किया जाएगा ।
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