Thursday, 8 January 2015

सिनेमा, क्रिकेट और दर्शक



संतोष कुमार
भारतीय उपमहाद्वीप में सिनेमा और क्रिकेट मनोरंजन के प्रमुख साधन हैं. लेकिन इन दोनों में बुनियादी फर्क यह है कि सिनेमा में वही दिखाया जाता है जो हम देखना चाहते हैं और क्रिकेट में हमें वह भी देखना पड़ता है जो हम नहीं देखना चाहते हैं. उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप काम की तलाश में लोगों ने शहर की ओर रुख किया. शहरों की जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी. कारखानों में लम्बे समय तक काम करने के पश्चात लोग बीमार पड़ने लगे. अवकाश का कोई समय नहीं होता था. लोगों ने महसूस किया कि सप्ताह में एक छुट्टी का दिन भी होना चाहिए जिससे लोग अपने आप को तरो-ताजा कर सके. रंगमंच, पुस्तकालय, मेला तथा विभिन्न खेलों आदि के माध्यम से लोग अपना मन बहलाने लगे. आधुनिक मनोरंजन के साधनों की शुरूआत होने लगी.
सिनेमा और क्रिकेट अब मनोरंजन के साधन मात्र नहीं रहे. देश के समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा राजनीतिशास्त्र में इनका योगदान खासा बढ़ने लगा है. व्यापार और रोजगार के दृष्टिकोण से इसका महत्व बढ़ गया है. किरदार कहानी से तथा खिलाड़ी खेल से अधिक महत्वपूर्ण हो गया है. विशेषज्ञों का मानना है कि ये दोनों स्थितियाँ शुभ नहीं हैं. चिन्ता तो इस बात की है की भारतीय दर्शक केवल दर्शक ही हैं. परिवर्तन तो अवश्यम्भावी है यह हो कर रहेगा, महत्वपूर्ण यह कि परिवर्तन का कारक कौन है ? परिवर्तन की दशा और दिशा समाज तय कर रहा है या समाज खुद परिवर्तित हो रहा है ? परिवर्तन समाज के हक़ में है या व्यापार के हक़ में ? भारतीय दर्शक इसकी चिन्ता में कम ही दिखाई देते हैं.
अक्सर फिल्मकारों का बयान यह होता है की “हम फिल्मों में वही दिखाते हैं जो लोग देखना चाहते हैं”. इस बात की प्रमाणिकता संदेहास्पद है. दरअसल हम यह तय ही नहीं कर पातें हैं की हम क्या देखना चाहते हैं. हमारा यह तय न कर पाना उन्हें यह संदेश दे देता है हम उनके काम को पसंद करते हैं. हमारी यह ख़ामोशी ही उनके लिए प्रमाणपत्र होता है.

सिनेमा में क्रिकेट तो बहुत देखने को मिला परन्तु क्रिकेट में सिनेमा के लिए 2014 को याद किया जायेगा. और जो याद किए जायेंगे वो हैं एकदिवसीय मैचों के कप्तान महेंद्र सिंह धोनी “द अमेजिंग महेंद्रा”. सुर्खियों ने तो जैसे धोनी का दामन थाम रखा है. अपने करियर के शुरूआत से ही अलग-अलग कारणों से वे चर्चा में रहे. क्रिकेट और व्यापार का जैसा समन्वय धोनी ने दिखाया वह शायद ही देखने को मिला हो. मैच को जान-बूझ कर आखिरी गेंद तक ले जाने का काम हो या टॉस जीत कर अकसर पहले गेंदबाजी करने का फैसला, धोनी ने क्रिकेट व्यवसाय को बहुत मुनाफा पहुँचाया. लेकिन सबके चहेते धोनी ने ऐसा क्या कर दिया की हवा का रुख बदलने लगा ? कहीं इस बदलती बयार का कारण सचिन, गांगुली, द्रविड़, और लक्ष्मण जैसे दिग्गजों का अप्रत्याशित तरीके से सन्यास लेना तो नहीं है ? सहवाग और युवराज जैसे खिलाड़ीयों का विश्वकप टीम में न होने का जिम्मेदार कहीं धोनी तो नहीं माना जा रहा ?
फिल्मकारों ने तो समझ लिया की लोग फिल्मों में अपने पसंदीदा कलाकारों को नए रूप में देखने आते हैं धोनी को यह बात समझ में क्यों नहीं आई. मनोरंजन के एक साधन “क्रिकेट” में दर्शक अपने हीरो को खेलते देखना चाहते हैं. मैच जितने से ज्यादा ख़ुशी उन्हें इस बात से होती है कि  उनके पसंदीदा खिलाड़ी ने शतक बनाया हो. ऐसा नहीं कि धोनी ने जिस एकादश को मौका दिया वो सर्वोत्तम थे. द.अफ्रीका, इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया में हुये पिछले कुल बीस मुकाबलों में केवल एक ही जीत पाए. हम जल्दी भावुक को जाते हैं. पल भर में इंसान को भगवान का दर्जा दे देते हैं. हम यह भूल जाते हैं की एक इंसान गलतियों से परे नहीं हो सकता. विश्वकप का मंच तैयार हो चूका है. सबकी नजर इस बार चयन प्रक्रिया पर थी. लोगों ने अपने-अपने चहेतों के लिए दुआएं की लेकिन अंतिम फैसला तो बी.सी.सी.आई. के चयन समिति को ही करना था. यह बात अलग है कि  बी.सी.सी.आई. की कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगते रहे हैं लेकिन इसने पारदर्शिता की माँग को कभी गंभीरता से नहीं लिया. खिलाड़ियों के चयन का आधार क्या है ? इसका जवाब कभी सीधे मुँह किसी ने नहीं दिया.

कोई पिता अपने पुत्र को नए साल का इससे अच्छा तोहफा क्या दे सकता था कि उसे विश्वकप के टीम में जगह दिला दे. इससे जो संदेश हजारों युवा क्रिकेटरों में गया वह निःसंदेह उनके सपनों को चूर करने वाला था. ये क्रिकेट इसलिए खेलते हैं क्योंकि हम इन्हें खेलते हुए देखना चाहते हैं. जिस दिन लोगों के दिल से यह चाहत कम हो गई वह दिन क्रिकेट के लिए शुभ नहीं होगा. लगातार अगर लोगों के भावनाओं के खिलाफ फैसले लिए गये तो यह चाहत कम होनी भी चाहिए. संभवतः लोगों का आकर्षण कम हुआ भी है नहीं तो क्या मजाल की इस देश में लोग क्रिकेट मैच को छोड़ कर कबड्डी लीग देखें, लेकिन ऐसा हुआ है.
भविष्य के गर्भ में क्या है यह कोई नहीं जानता. शायद यही वह समय हो जब हमारा विश्व 12 देशों से बढ़ कर 200 देशों की सूची में भी स्थान बना पाए. शायद लोगों का रुझान 60 से अधिक देशों की प्रतियोगिता “शतरंज” तथा विश्व की प्रतियोगिता “फूटबॉल” की तरफ बढे. शायद अब “हॉकी” को वो सम्मान दिला सकें जिसका वो हकदार है. इतिहासकार कहते हैं जब सभ्यता अपने चरम पर पहुँच जाती है तो उसका पतन होना भी आरम्भ हो जाता है. शायद भारतीय खेल और खेलप्रेमी एक नए विकल्प की तलाश करें. आखिर है तो यह मनोरंजन का ही साधन.
जनसत्ता में १२ फरवरी २०१५ को प्रकाशित

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