Tuesday, 13 January 2015

समाज की विसंगतियों और विडम्बनाओं को उजागर करती वाज़दा ख़ान की कविताएं

बिपिन बिहारी दुबे
''हम शर्मिंदा हैं कि हम पत्थर की क्यूँ ना हुईं'' वाज़दा ख़ान के इन शब्दों ने दिल्ली की इस जमा देने वाले सर्दी के मौसम में भी श्रोताओं को भरपूर आनंदित किया. हिन्दी की सुपरिचित कवयित्री और चित्रकार वाज़दा ख़ान अपनी कविताओं का पाठ, हिन्दी की महत्त्वपूर्ण रचनाशीलता को अनौपचारिक मंच देने के उद्देश्य से गठित साहित्यिक संस्था ‘हुत’ की ओर से आयोजित एकल कविता-पाठ कार्यक्रम के दौरान प्रस्तुत कर रही थीं. ‘हुत’ की तरफ़ से यह आयोजन रविवार, 11 जनवरी, 2015 को अपराह्न 3.00 बजे से एनडीएमसी पार्क, अबुल फ़ज़ल रोड,  तिलक ब्रिज रेल्वे स्टेशन, मंडी हाउस, नई दिल्ली में किया गया.
अपने कविता-पाठ में वाज़दा ख़ान ने- ''शब्द'' ‘सलवटों वाला चेहरा’, ‘जलजला’, ‘मानो या न मानो’, ‘माँ’, ‘हम लड़कियाँ’, ‘रुलाई’, ‘प्यास’, ‘मुम्बई से लंदन तक’ (एम.एफ़. हुसैन की याद में), ‘कौन महत्त्वपूर्ण है’, ‘हम पत्थर की क्यूँ ना हुईं’ (निर्भया की स्मृति में), ‘नफ़रत’, ‘आरज़ू’, ‘छोटे लोग’ आदि कई कविताएँ प्रस्तुत कीं. वाज़दा ख़ान की कविताओं और ‘हुत’ की ज़मीनी रचनात्मकता के परिवेश के साथ-साथ परिदृश्य तो उभरता ही है, अपने समय में अपने हस्तक्षेप का विजन भी उजागर होता है.
कविता-पाठ भी एक कला है जिसे अपने नफ़ासत-भरे अन्दाज़ में साधा है वाज़दा ख़ान ने. श्रोता उनकी अभिव्यक्ति से गहरे, पर शब्दशः परिचित होते रहे. हिन्दी के महत्त्वपूर्ण युवा कवि और गहरी आलोचकीय दृष्टि रखनेवाले आर. चेतन ने कहा कि यह बात रेखांकित करने लायक़ है कि वाज़दा के पास कई अच्छी कविताएँ हैं. हिन्दी के सुपरिचित कवि उपेन्द्र चौहान ने विचार व्यक्त किया कि वाज़दा ख़ान की  कविताओं और चित्रों की अभिव्यक्ति की बारीक बुनावट में सहज सामंजस्य है. इस कवयित्री के पास अपनी तरह की अपनी धार है जो प्रभावित करती है. तमाम विसंगतियों और विडम्बनाओं से भरे सामाजिक संरचना को वाज़दा ख़ान गहरे देखती हैं और जीवन-संघर्ष की अंतर्वस्तु को व्यक्त करने के लिए एक पूरी कविता को एक बिम्ब में बदल देने की कलात्मकता से परिचय कराती हैं. प्रतिष्ठित कवि रवीन्द्र के. दास ने कहा कि आत्मकथात्मक कंटेंट को वही रच सकता है जिसके पास अपनी अर्जित कला हो, जो कि वाज़दा ख़ान की लेखनी में है. इनकी प्रवाहपूर्ण भाषा वाली कविताओं में समूची स्त्री-जाति की अभिव्यक्ति दर्ज प्रतीत होती है. वाज़दा ख़ान की कविताओं के बारे में युवा कवि नित्यानंद गायेन ने उल्लेखित किया कि इस कवयित्री की कविताएँ चुपाचाप गुज़र जानेवाली कविताएँ नहीं हैं, सवाल करती हैं. अपने शब्दों की मितव्ययिता से बेचैन और परेशान करनेवाली कविताएँ हैं.
कार्यक्रम का संचालन कर रहे युवा कवि और साहित्यिक पत्रिका ‘रू’ के सम्पादक कुमार वीरेन्द्र ने अपने
वक्तव्य में कहा कि वाज़दा ख़ान की कविताएँ ज़िन्दगी की रोशनी के भीतरी अँधेरे को अपनी शैली में इस तरह मूर्त करती हैं कि अनुभूति की सहजता अपनी विरलता में नज़र आती है.  अनुभूति की सहजता में यही विरलता वाज़दा ख़ान की पहचान है. इनके यहाँ विचार और संवेदना वस्तु के रूप में नहीं, बल्कि दृष्टि के रूप में हैं. रंगों की जीवन्तता और जोखिम को जैसे अपने चित्रों में साधती हैं वाज़दा ख़ान, वैसे ही किसी परिधि में नहीं, परिप्रेक्ष्य में तमाम शेड्स को अपनी कविताओं में रूपायित करती हैं. बिम्बों को विधान और विधान को बिम्बों में रचने की अद्भुत कला इनके पास है.
‘हुत’ के इस कार्यक्रम में रचनाकार डॉ. देवेन्द्र कुमार देवेश, रंजना बिष्ट, नेहा राय, दीपक कुमार श्रीवास्तव, सूर्य प्रकाश सिंह, रोहित बनर्जी, मणि यादव, अनीता पंडित, मधुमिता श्रीवास्तव, पूर्णिमा सिंह, अश्विनी कुमार, चुलबुल कुमारी आदि की सक्रिय भागीदारी रही.

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