अमन आकाश
लंबे अरसे के बाद पटना में नाटक देखने का मौका मिला. विश्वा की नवीनतम प्रस्तुति “बल्लभपुर की रूपकथा”, जिसका मंचन कालिदास रंगालय के प्रेक्ष्यागृह में होना था. मूल पटकथा बंग्ला साहित्यकार बादल सरकार की लिखी हुई थी, जिसे हिंदी में प्रतिभा अग्रवाल के द्वारा अनूदित किया गया था. निर्देशक थे पटना रंगमंच के युवा रंगकर्मी राजेश राजा. मैं 14 दिसंबर को पटना पहुँचा. इस नाटक की दूसरी प्रस्तुति थी. 14 दिसंबर की खुशनुमा शाम, जिसे गांधी मैदान में लगा सरस मेला और भी खूबसूरत बना रहा था. मैं निर्धारित समय से आधे घंटे पहले यानि 05:30 बजे रंगालय पहुंच गया. बड़ी उत्सुकता थी, इस नाटक को देखने की. दर्शक ठीक 6:00 बजे हॉल में प्रवेश कर गए थे. रंगालय का मंच एक विशाल लाल परदे की आवृति लिए था. कुछ क्षण के बाद मंच प्रकाशित हुआ, प्रकाश संचालक थे पटना रंगमंच के गिने-चुने परिकल्पकों में से एक, विजेंद्र कुमार टांक. तभी मंच पर एक 20-21 वर्षीय आधुनिक नौजवान (विपुल) ने सूत्रधार के रूप में प्रवेश किया. नाटक की शुरुआत हो चुकी थी. उस नौजवान ने मंच से पूरी दर्शक-दीर्घा को संबोधित किया, पर पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगा कि वो हम दर्शकों से सीधे जुड़ नहीं पाया. वो लाल पर्दा अभी भी अपने पूर्ववत् स्थिति में था. सूत्रधार के जाने के बाद मंच का पट अनावृत हुआ. राजदरबार का दृश्य, गुजरता शाही ठाठ और राजगद्दी पर जींस-शर्ट-स्पोर्ट्स शू धारण किए आसीन युवा राजा भूपति (नीतिश). किसी भी नाटक का वस्त्र-विन्यास उसके देशकाल और स्थानीय संस्कृति के
अनुरूप की जाती है, इस समझ की कमी दिखी. नाटक की पटकथा और संवादों से जाहिर होता था कि नाटक 50 के दशक के आसपास लिखा गया है. इसी दृश्य का दूसरा किरदार, वृद्ध सेवक मनोहर (श्रवण), जोकि अपने मालिक की कारस्तानियों से आमूलचूल झल्लाया हुआ था, के ऊपर निर्देशक को और मेहनत की जरुरत थी. पहले दृश्य की समाप्ति होती है. अब मंच पर प्रवेश होता है तीन महाजन पवन (राहुल), श्रीनाथ (राज नन्दन) और साहु (हरेंद्र). पूरे नाटक के दरम्यान पवन का किरदार, जो राहुल निभा रहे थे, छाया रहा. अपनी ऊर्जा का यथोचित निवेश कर राहुल ने दर्शकों की भरपूर तालियां लूटीं. श्रीनाथ और साहु का चरित्र ठीक-ठाक रहा. दृश्य सचमुच हास्य था. नाटक में इंट्री होती है हालदार (आदिल राशिद) परिवार की, पत्नी मिसेज स्वप्ना हालदार (संजना) और बेटी मिस छंदा हालदार (प्रियंका). सिगार पीते मिस्टर हालदार ने कई दृश्यों को हास्य बनाया तो कई दृश्यों को हास्यास्पद. हास्य और हास्यास्पद का सूक्ष्म अंतर आसानी से पकड़ में नहीं आता. खास कर मिस्टर हालदार द्वारा की गयी एक आम भारतीय गाली की लिपसिंग ने रंगगरिमा की लक्ष्मण रेखा को तोड़ दिया. एक वरिष्ठ कलाकार के नाते उन्हें ऐसी गलतियों से बचनी चाहिए. आत्मविश्वास जब अति में परिणत हो जाता है तो उसकी परिणति क्षति के रूप में मिलती है. स्वप्ना हालदार की संवाद अदायगी के दौरान उनकी भावभंगिमाओं से ज्ञात हो रहा था कि वो एक कुशल कत्थक नर्त्तकी हैं. उनके हाथों में अनावश्यक गति थी. वहीं नायिका छंदा सहज दिखी. नाटक के अंतिम क्षणों में मंच पर पधारे चौधरी (प्रवीण सप्पू). लेकिन चौधरी भी अपनी पूरी रंगत में नहीं दिखे, जैसा कि दर्शक उनसे अपेक्षा करते रहे थे. खैर मंद गति से आगे बढ़ते नाटक का अंत होता है. मन खिन्न हो गया. माफ कीजिएगा, मैं नाटक का कथासार यहाँ नहीं लिख सका. लगा जैसे निर्देशक ने इस नाटक को पटना रंगमंच के कुछ विशेष दर्शकवृन्द के लिए तैयार किया था, जो कि रंगमंच में भी भोजपुरी का मसाला खोजते हैं. एक लंबे अरसे से रंगमंच से जुड़े रहने के बावजूद भी निर्देशक का रंगकर्म की बारीकियों, शिष्टाचार और मर्यादा से अवगत् नहीं होना वाकई दु:खद संकेत है. बिहार रंगमंच में चुनिंदे ही कुछ ऐसे निर्देशक हैं जिनकी प्रस्तुतियाँ राष्ट्रीय स्तर पर मंचन करने लायक होती हैं. पटना में कई ऊर्जावान युवा अभिनेता हैं, जिनको अपनी ऊर्जा का सही जगह पर इस्तेमाल करना सीखना होगा.
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