Friday, 30 January 2015

गोडसे जिंदा नहीं होगा, गांधी मरेंगे नहीं

एनसीईआरटी के प्रमुख रहे सुख्यात शिक्षाशास्त्री कृष्ण कुमार ने अपनी किताब ‘शांति का समर’ में एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल उठाया है- राजघाट ही हमारे लिए गांधी की स्मृति का राष्ट्रीय प्रतीक क्यों है, वह बिड़ला भवन क्यों नहीं है जहां महात्मा गांधी ने अपने आख़िरी दिन गुज़ारे और जहां एक सिरफ़िरे की गोली ने उनकी जान ले ली। जब बाहर से कोई आता है तो उसे राजघाट क्यों ले जाया जाता है, बिड़ला भवन क्यों नहीं। कृष्ण कुमार इस सवाल का जवाब भी खोजते हैं। उनके मुताबिक आधुनिक भारत में राजघाट शांति का ऐसा प्रतीक है जो हमारे लिए अतीत से किसी मुठभेड का ज़रिया नहीं बनता। जबकि बिड़ला भवन हमें अपनी आज़ादी की लड़ाई के उस इतिहास से आंख मिलाने को मजबूर करता है जिसमें गांधी की हत्या भी शामिल है- यह प्रश्न भी शामिल है कि आख़िर गांधी की हत्या क्यों हुई?
गांधी की हत्या इसलिए हुई कि धर्म का नाम लेने वाली सांप्रदायिकता उनसे डरती थी। भारत-माता की जड़ मूर्ति बनाने वाली, राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक पहचान के आधार पर बांटने वाली विचारधारा उनसे परेशान रहती थी। गांधी धर्म के कर्मकांड की अवहेलना करते हुए उसका मर्म खोज लाते थे और कुछ इस तरह कि धर्म भी सध जाता था, मर्म भी सध जाता था और वह राजनीति भी सध जाती थी जो एक नया देश और नया समाज बना सकती थी। गांधी अपनी धार्मिकता को लेकर हमेशा निष्कंप, अपने हिंदुत्व को लेकर हमेशा असंदिग्ध रहे। राम और गीता जैसे प्रतीकों को उन्होंने सांप्रदायिक ताकतों की जकड़ से बचाए रखा, उन्हें नए और मानवीय अर्थ दिए। उनका भगवान छुआछूत में भरोसा नहीं करता था, बल्कि इस पर भरोसा करने वालों को भूकंप की शक्ल में दंड देता था। इस धार्मिकता के आगे धर्म के नाम पर पलने वाली और राष्ट्र के नाम पर दंगे करने वाली सांप्रदायिकता खुद को कुंठित पाती थी। गोडसे इस कुंठा का प्रतीक पुरुष था जिसने धर्मनिरपेक्ष नेहरू या सांप्रदायिक जिन्ना को नहीं, धार्मिक गांधी को गोली मारी।
लेकिन मरने के बाद भी गांधी मरे नहीं। आम तौर पर यह एक जड़ वाक्य है जो हर विचार के समर्थन में बोला जाता है। लेकिन ध्यान से देखें तो आज की दुनिया सबसे ज़्यादा तत्व गांधी से ग्रहण कर रही है। वे जितने पारंपरिक थे, उससे ज़्यादा उत्तर आधुनिक साबित हो रहे हैं। वे हमारी सदी के तर्कवाद के विरुद्ध आस्था का स्वर रचते हैं। हमारे समय के सबसे बड़े मुद्दे जैसे उनकी विचारधारा की कोख में पल कर निकले हैं। मानवाधिकार का मुद्दा हो, सांस्कृतिक बहुलता का प्रश्न हो या फिर पर्यावरण का- यह सब जैसे गांधी के चरखे से, उनकी बनाई सूत से बंधे हुए हैं। अनंत उपभोग के ख़िलाफ़ गांधी एक आदर्श वाक्य रचते हैं- यह धरती सबकी ज़रूरत पूरी कर सकती है, लेकिन एक आदमी के लालच के आगे छोटी है। भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ ग्राम स्वराज्य की उनकी अवधारणा अपनी सीमाओं के बावजूद इकलौता राजनीतिक-आर्थिक विकल्प लगती है। बाज़ार की चौंधिया देने वाली रोशनी के सामने वे मनुष्यता की जलती लौ हैं जिनमें हम अपनी सादगी का मूल्य पहचान सकते हैं।
गांधी को मारने वाले गोडसे की चाहे जितनी मूर्तियां बना लें, वे गोडसे में प्राण नहीं फूंक सकते। जबकि गांधी को वे जितनी गोलियां मारे, गांधी जैसे अब भी हिलते-डुलते, सांस लेते हैं, उनकी खट-खट करती खड़ाऊं रास्ता बताती है। 30 जनवरी गांधी की शहादत का नहीं, इस भरोसे का भी दिन है।
( प्रिय दर्शन जी के एफबी. वाल से साभार)
 

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