Friday, 6 February 2015

दिल्ली का दंगल, भविष्य की राजनीति के संकेत ?

बिपिन बिहारी दुबे...
2014 में लोकसभा का ऐतिहासिक चुनाव सम्पन्न हुआ. ऐतिहासिक इसलिए कि इस चुनाव में मुद्दों से ज्यादा व्यक्तिवाद छाया रहा. व्यक्तिवाद को बढ़ाने में मीडिया और बाजार का एक अनोखा संगम देखने को मिला. इसी संगम और अपनी भाषण शैली के सहारे नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने और वर्षों बाद केंद्र में पूर्ण बहुमत वाली भाजपा सरकार बनी. लोक सभा चुनाव के अलावे 2014 में हुए हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और जम्मू-कश्मीर में भी भाजपा को अप्रत्याशित सफलता मिली.
2014 को भाजपा का स्वर्णिम साल भी कह सकते हैं। भाजपा ने ये सारे चुनाव नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के सहारे ही लड़ा और जीते भी. हालाँकि लोकसभा के मुकाबले विभिन्न विधानसभा चुनावों में भाजपा के मत प्रतिशत में कमी आयी. इसके दो प्रमुख कारण हो सकते है। नरेंद्र मोदी का असर कम होने लगा या लोगों ने व्यक्तिवाद से हटकर मुद्दों पर मतदान किया.
अब 2015 का पहला चुनाव दिल्ली में हो रहा है. कल ७ फरवरी को दिल्ली में मतदान होने वाले हैं. दिल्ली का लोकसभा चुनाव इसलिए भी खास है कि यहाँ से पूरे देश में की राजनीति तय होती है. एक तरह से दिल्ली राजनीति का केंद्र भी माना जाता हैं. दिल्ली विधानसभा चुनाव में इस बार खास कर तीन राजनीतिक दल मुकाबले में हैं- भाजपा, आम आदमी पार्टी और कांग्रेस. चुनाव की घोषणा के बाद से 5 फरवरी को चुनाव प्रचार संपन्न होने तक राजनीतिक सरगर्मी बहुत तेज रही.
अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की बहुचर्चित भारत यात्रा भी इसके प्रभाव में आये बिना न रह सकी. दिल्ली की चुनावी हलचल ने पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा. दिल्ली चुनाव में इस बार सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या नरेंद्र मोदी का विजय रथ यहाँ रुकेगा? 2014 के शानदार प्रदर्शन के बावजूद दिल्ली में भाजपा में शुरू से ही आत्मविश्वास की कमी नजर आयी. अचानक से किरण बेदी को पार्टी में शामिल कर अपने सशक्त नेताओं को दरकिनार कर बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना इसका प्रमुख उदाहरण है. भाजपा के सबसे सफल अध्यक्ष अमित शाह के इस फैसले ने कार्यकर्ताओं के अंदर भारी रोष पैदा कर दिया. प्रधानमन्त्री ने स्वयं कमान संभालते हुए चार रैलियाँ की और पूरे केंन्द्रीय मंत्रिमंडल और सैकड़ो सांसदों को मैदान में उतार दिया. मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार बनने के बाद किरण बेदी भी पूरे दमखम से साथ चुनाव प्रचार में लग गयीं. हालांकि समय-समय पर उनकी राजनीतिक
अपरिपक्वता भी सामने आती रही. पार्टी ने घोषणा-पत्र की बजाय दृष्टी पत्र जारी किया, जिसमें वो अपने पुराने वादों से ही मुकरते नजर आयी.  आम आदमी पार्टी के प्रमुख अरविन्द केजरीवाल 2014 में बनारस से लोक सभा चुनाव हारने के बाद से ही दिल्ली में चुनाव की तैयारी में लग गए थे.  आम आदमी पार्टी दिल्ली पर अपना ध्यान केंद्रित करते हुए 8 महीने पहले से ही चुनाव की तैयारियों में लग गयी. हालाँकि भाजपा की तरह ही इस पार्टी में भी अरविंद केजरीवाल के रूप में एक ही व्यक्तित्व नजर आता है. अरविंद केजरीवाल ने अपनी ईमानदार छवि के साथ-साथ दिल्ली के प्रमुख मुद्दों को भी जोर-शोर से उठाया. अपनी 49 दिन के काम का उदाहरण पेश करते हुए आप ने लोगों को घर-घर जाकर भरोसा दिलाया. यही कारण है कि मुद्दों की राजनीति करने के मामले में आप ने भाजपा और कांग्रेस को भी पीछे छोड़ दिया. दिल्ली में 20 नये कॉलेज खोलने, वाई-फाई सुविधा, सीसीटीवी कैमरे लगवाने आदि वादों से  मतदाताओं और खास कर यूवाओं  का ध्यान आकर्षित किया. लेकिन इस बार जिस तरह से आप टिकट बाँटने के अपने ही पुराने तरीके से पीछे हटती नजर आयी आगे इसकी और नीतियों में बदलाव लाने के संकेत दे रही है. आम आदमी पार्टी के कई चेहरे जो इस बार आप छोड़कर अन्य पार्टियों के दामन थामते नजर आये, यह भी शुभ संकेत नहीं है. आप के अनुसार अगर ये लोग स्वार्थी थे तो इसका क्या भरोसा कि आने वाले समय में ऐसे स्वार्थी लोग नहीं निकलेंगे.
2013 के दिल्ली विधान सभा चुनाव से हीं शुरू हुआ कांग्रेस का बुरा दौर थमने का नाम नहीं ले रहा है। दिल्ली में कांग्रेस अपनी वापसी के हर सम्भव प्रयास करती नजर आ रही है. अपने घोषणापत्र में किये वादों से कांग्रेस लोगों का ध्यान खींचने का प्रयास कर रही है. डेढ़ रूपये प्रति यूनिट बिजली, 2 साल के अंदर दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा करने के बावजूद पार्टी मुख्य मुकाबले में आती नहीं दिख रही है.
अजय माकन को चुनाव की कमान सौंपने के बाद पार्टी में उठी आंतरिक गुटबाजी कांग्रेस के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रही है.दिल्ली चुनाव के इस मुकाबले में रेफरी की भूमिका निभा रहा चुनाव आयोग और उससे ज्यादा मीडिया भी इस पर पैनी नजर बनाये हुए है. दिल्ली में मुकाबला किस के बिच होगा इसको तय करने में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण रही है. हालाँकि 2014 के लोक सभा चुनाव से उलट इस बार मीडिया भी बँटी नजर आ रही है. अब यह चुनाव के दिन दिल्ली का मतदाता तय करेगा कि वो किस बात से प्रभावित हुआ. 10 फरवरी को परिणाम की घोषणा के साथ ही दिल्ली के इस दंगल का विजेता घोषित हो जायेगा.

No comments:

Post a Comment