बिपिन बिहारी दुबे
पूंजीवाद साम्प्रदायिक ताकतों के सहारे हमारी सभ्यता-संस्कृति को नष्ट करना चाहता है। ये बात कवि व साहित्यकार असद जैदी ने 17 मई 2015 को नई दिल्ली के इंडियन सोशल इंस्टिच्यूट में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी "कविता 16 मई के बाद” के अवसर पर कहा। उन्होंने इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के प्रथम सत्र की अध्यक्षता की। 16 मई 2014 के बाद बदली परिस्थिति पर चर्चा करते हुए कहा कि फासीवाद की जड़े दिन पर दिन गहरी होती जा रही हैं। इनसे पार पाने के लिये सबको संगठित होने की जरूरत है। पूंजीवाद के जिस प्रभाव को आप देख रहे है, इसका रोडमैप पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह द्वारा तैयार किया गया था। परंतु अब यह साम्प्रदायिक ताकतों के साथ मिलकर अपनी जड़े गहरी कर रहा है। अक्सर हम तब तक नहीं सोचते जब तक हमला हम पर न हो जाये। हमारे प्रतिक पुरूष किस तरह समझौता करते नजर आ रहे हैं। इस मौके पर तीसरी दुनिया के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा और कवि मंगलेश डबराल ने भी वर्तमान खतरे को समझते हुए आंदोलन के दायरे को बढ़ाने की बात की। वर्मा ने कहा कि इस आंदोलन में कवियों और साहित्यकारों की महती भूमिका होनी चाहिए। साथ ही साथ उन्होंनें वास्तिविकता की ओंर संकेत करते हुए कहा की जब असल परीक्षा की घडी आती है तो कई आन्दोलनकारी और क्रांतिकारी अपने कदम पीछे खिंच लेते हैं।संगोष्ठी के पहले सत्र में कवि रंजीत वर्मा ने कार्यक्रम का आधार वक्तव्य रखा। जिसमें उन्होनें पिछले एक साल में बदले हालात को और उससे उत्पन्न हो रहे खतरे की ओर ध्यान आकर्षित किया। अलग-अलग राज्यों से आये सामाजिक कार्यकर्त्ताओं और संस्कृति कर्मियों ने भी अपनी-अपनी राय रखी तथा अपने क्षेत्र की परिस्थितियों से अवगत कराया। सामजिक कार्यकर्त्ता कविता कृष्णन ने संघ के परिवारवाद की भूमिका पर प्रश्न खड़ा करते हुए कहा कि देश में किस तरह परिवारवाद की आड़ में श्रम कानून और अन्य महत्वपूर्ण कानूनो को बदला जा रहा है। यह गम्भीर चिंता का विषय है। जनसत्ता के पत्रकार अरविन्द शेष ने खबरों का उदाहरण देकर सचेत करते हुए कहा कि आज हम सिर्फ यह चर्चा कर रहे हैं कि लोगों तक कैसे पहुँचा जाए और उधर साम्प्रदायिक ताकतें अपनी जड़े और गहरी करती जा रही हैं। झारखंड से आये जानेमाने उपन्यासकार रणेंद्र ने लोकतंत्र के स्तम्भों को ही अलोकतांत्रिक बताते हुए कहा कि नौकरशाही
आज भी अंग्रेजों के ढर्रे पर चल रही है। न्यायपालिका 300-400 परिवारों के बीच सिमट गयी है। विधायिका में किस तरह के लोग आ रहे हैं और मीडिया का रूप तो सबसे ज्यादा डरावना है। बिहार से जुड़े रहे अर्जुन प्रसाद सिंह ने साहित्य को किसानों, सर्वहारा और मध्य वर्ग तक ले जाने की बात कही। सिंह ने कहा कि वर्तमान सरकार देश को वित्तीय नागपाश में बांधने का कार्यक्रम चला रही है। इलाहाबाद से आयी सीमा आजाद ने महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता के मुद्दे को उठाया और साथ-ही-साथ ये भी कहा कि साम्प्रदायिक हमले राजनीतिक संरक्षण में हो रहे हैं। सत्ता जिसको चाहे उसी को रहने दे। कवि नीलाभ ने वर्ग विभाजित समाज की ओर इशारा करते हुए कहा कि समाज में चेतना भी वर्ग के हिसाब से विभाजित है इसलिए लोगों तक अलग-अलग तरीके से पहुंचने की जरूरत है। शिवमंगल सिद्धांतकर ने नरेंद्र मोदी को हिटलर से भी खतरनाक बताते हुए कहा कि हिटलर की सेना की पहचान करना आसान था। मोदी की सेना आकलन संस्कृति के आधार पर, सूचना क्रांति के आधार पर करने की जरूरत है।
संगोष्ठी के मुख्य अतिथि वरिष्ठ पटकथा लेखक सागर सरहदी थे। वर्तमान समय में हिंदी फिल्मों के ऊपर मँडरा रहे खतरे की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए सरहदी ने बताया कि कैसे पूंजीवाद सिनेमा साहित्य को बिल्कुल नष्ट करने पर तुला हुआ है। आज की फिल्मों से उम्दा कहानियों का गायब हो जाना, बाजारू और अश्लील फिल्में बनना इसका उदाहारण है। संगोष्ठी कि द्वितीय सत्र में अलग-अलग राज्यों से आये लोगों ने अपने कार्यक्रम की रिपोर्ट पेश की और भावी योजनाओं पर भी चर्चा किया। कार्यक्रम के दौरान कवि पाणिनी आनन्द ने ‘ये धरती अपनी होगी’ गीत को गाकर वहाँ बैठे लोगों में उर्जा का संचार किया। नाटककार राजेश चंद ने भी अपने समूह के साथ गीत प्रस्तुत किया। संगोष्ठी के अंतिम सत्र में कविता पाठ हुआ। जिसमें 20 से ज्यादा कवियों ने अपनी-अपनी रचनाओं का पाठ किया। कविता पाठ कार्यक्रम की अध्यक्षता नीलाभ ने और संचालन कवि पाणिनी आनंद ने किया। वहीं पहले सत्र के संचालक पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव थे।
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