शिवांजलि पाण्डेय
आज तक जीवन में संघर्ष सिर्फ किताबी शब्दों में
जाना-सुना था. ऐसा नहीं की किया, पर जीवन का असली संघर्ष जो शुरू हुआ वो नया
रायपुर के "पुरखोती मुक्तांगन" से शुरू हुआ. दिल्ली से जो सपना लेकर हम यहाँ आये थे कि कुछ नया करेंगे, कुछ नया
सीखेंगे नया कुछ, जानेंगे वो सपना यहाँ आकर साकार लगने लगा. गाँव जैसी
रहने की जगह घर, और उसकी सुन्दरता में चार चाँद लगाती मुक्तांगन की हरी-भरी
लताये और सुशोभित करती वंहा की शाम, और आदिवासी संस्कृती की बनी
मूर्तियाँ हंरे मन रुपी भंवरे को लुभा रही थी. प्रकृति की गोद में डूबा ये
जगह और उस पर लोगो की शोरगुल से कोसो दूर हमें लग रहा था की हम कहा आ गये
? और उस पर धीरे-धीरे सूरज का निकलना हमारे मन को अति भा रहा था कुछ इस
तरह की वादियों को देखने के बाद हम अपनी दिल्ली को भूल गये थे और यहाँ पर
खो गये थे.
सूरज की किरणों से खुलने वाली ये आँखे अब चन्द्रमा की गोद में कब समां जाती ये हमें पता ही चलता है.कुछ इस तरह हमारी शुरुआत हुई हमने यंहा लोगो को देखा जो अपने जीवन में
काफी संघर्ष कर के अपने जीवन को लोहे की तरह तपा रहे थे, पर उनको भी इस
बात का अहसास था की एक दिन ये लोहा भी आकार लेगा, मुक्तांगन में लोग ७ दिन
रुके वहा पर हम काफी लोगो से मिले, बाते की तब मुझे भी एअहास हुआ की आखिर
संघर्ष तो ये है ?यहाँ पर तो हमारे राग ' सा, रे, गा, मा' का भी कुछ अलग स्वरुप देखने को मिला जो की यहाँ की काफी लोकप्रिय और प्रचलित राग माना गया है. यंहा पर खाना बनाते समय भी गाने गाये जाते है 'री री लोयो रेला रे रे ला' कुछ अलग भाषा जैसे हलबी, गोंडी, माडिया में ये सब हमारे लिये नया था यंहा पर कुछ लोगो को हिंदी भी आती थी जिनसे हम लोग इसका मतलब पूछ पूछ कर आनंद ले रहे थे. मुक्तांगन में सात दिन की कार्यशाला में हमने जो कुछ सीखा वह हमारे लिये एक दम नया था और अब हमें शहरों की चकाचौंध में धुंधली पड़ती गाँव की तस्वीरें नज़र आने लगी थी. यानाः पर मैंने भी कुछ गोंडी शब्द सीखे पहले तो शब्द हमारे मुख से विवर्व नही हो पा रहे थे पर कहा जाता है कि "रस्सी आवत-जात ते सिल पर परड निशान" वाली कहावत याद आ रही थी. यहाँ पर खाना खा लो को ( साड़ी तिन ) और रोने को (अड़) और सोना को ( नामा ) बोलते है. कुछ इस तरह के नए शब्द नये लोग नई जगह एक नया अनुभव हमारे जीवन को संघर्ष की एक नई परिभाषा को परिभाषित कर रहा था.
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