अमन आकाश
यात्रा करना किसे अच्छा नहीं लगता। भारतीय पुरातन और आधुनिक इतिहास को अगर पलटें तो शंकराचार्य, गुरू नानकदेव, राहुल सांकृत्यायन जैसे कई यायावर मिल जाएंगे जिन्होंने अपनी घुमक्कड़ी से नए कीर्तिमान स्थापित किए। हमारा भारतवर्ष अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए विश्वविख्यात है। चाहे उत्तर में हिमाच्छादित हिमालय श्रृंखला हो या फिर दक्षिण में पाँव पखारती हिंद महासागर की लहरें। चाहे सुदूर पूरब में सूर्य की नव लालिमा से प्रथम परिचय हो या फिर पश्चिम में रंगीली संस्कृति वाला रेगिस्तान। प्रकृति के विविध रंगों का दर्शन भारत में ही संभव है। हम भी कुछ दिनों से भारतभ्रमण की सोच रहे थे कि अचानक गुरुजी की कृपा से वो मौका मिल गया। विगत 14 मार्च को हमारे कॉलेज की डिविनिटी सोसायटी द्वारा एक टूअर का आयोजन किया गया। जगह चुना गया था उत्तराखंड स्थित श्री रीठा साहिब। सिक्ख धर्म के पावन स्थलों में श्री रीठा साहिब का नाम भी अग्रणी है। कहते हैं कि किसी पाक़-पावन स्थल पर हम अपनी मर्जी से नहीं जाते, वहाँ से हमारा बुलावा आता है। गुरु का बुलावा आए और कोई उसको नकार दे, ऐसा भी संभव है भला! तमाम औपचारिकताओं के बाद 25 विद्यार्थी और 7 प्राध्यापकों के जत्था जिसमें डॉ. गुरदीप कौर, एम.एस. भाटिया सर, डॉ. हरनेक गिल, डॉ. परमजीत कौर, डॉ. अबनाश कौर, जास्मिन कौर मैम, जसविंदर सिंह, अमरजीत सिंह सर थे, को गुरु के चरणरज को शीश से लगाने का मौका मिला। इस जत्थे में हम और हमारे मित्र दीपक मिश्रा भी शामिल थे। हमें इस बात की अपार खुशी थी कि हमें भी गुरुदर्शन का सौभाग्य मिलेगा। 14 मार्च की रात 8 बजे हम दोनों कॉलेज परिसर में पहुँच गए थे। हमारे साथी भी वहाँ पहले से मौजूद थे। सब के मन में एक नए जगह पर जाने की उत्सुकता और रोमांच था। उस रात बह रही बसंत-बयार वातावरण में सिहरन पैदा कर रही थी, ऐसा लग रहा था हमारी खुशियों में पेड़-पौधे भी झूमकर खुशियाँ साझा कर रहे हैं। हमें ले जाने वाली बस लगभग 9:30 बजे कॉलेज के सामने खड़ी थी। सब अपना-अपना सामान संभालकर बस की तरफ बढ़े। जत्थे का संचालन गुरदीप मैम कर रहीं थीं। सामान पैक करवाने के बाद कॉलेज के मुख्य द्वार पर सामूहिक अरदास हुआ, तत्पश्चात “जो बोले सो निहाल-सत श्री अकाल” के पवित्र उच्चारण के बाद मस्तों का झुंड अपनी मंजिल की ओर निकल पड़ा। कुछ छात्र अपने साथ ढोल-मंजीरा भी लाए थे और उन्होंने गुरुकीर्त्तन करना शुरु किया। भाटिया सर आलाप ले रहे थे और छात्र उनका अनुकरण कर रहे थे। धार्मिक परंपराओं के अनुसार हम सबने अपने सिर को ढँक रखा था। हमारी बस अब दिल्ली की सीमाओं को लाँघकर उत्तर-प्रदेश में प्रवेश कर चुकी थी। रात के करीब 11:30 बज रहे थे। दिल्ली की गगनचुंबी इमारतें, चमचमाती सड़कें बहुत पीछे छूट चुकी थीं, अब हम उत्तर-प्रदेश के ग्रामीण इलाकों से रू-ब-रू हो रहे थे। मिट्टी के बने घर, मद्धिम रोशनी में जलती लालटेन, झींगुरों की आवाज सरल-निष्कपट ग्राम्यजीवन का जीवंत चित्र उकेर रही थी। इन सब दृश्यों का आनंद लेते-लेते कब हमें भूख का अनुभव होने लगा, पता ही नहीं चला। लेकिन लंबी यात्रा के दौरान हम भारी या तला-भुना भोजन नहीं कर सकते। इसलिए गुरुदीप मैम ने बस में पहले से ही खाने की हल्की-फुल्की वस्तुएँ और फल वगैरह रखवा लिए थे। सबने सुपाच्य डिनर किया और कुछ ही क्षण बाद निद्रा देवी के शरण में चले गए। लेकिन मेरी आँखों में नींद कहाँ। मैं देर रात तक घुप्प अँधेरे को निहारता रहा और पता नहीं मेरी भी आँखें कब लग गयीं। चिड़ियो की चहचहाहट और गाड़ियों के चिल्लपों के मिश्रित आवाज से जब सुबह नींद खुली तो अपने आप को उत्तर-प्रदेश के रामपुर शहर में पाया। हल्की धुंध और पूरब से उठती लालिमा ने वातावरण को खुशनुमा बना दिया था। मेरे अन्य साथी भी जग चुके थे। बस चालक गाड़ी को अनवरत् भगाए जा रहा था। कुछ देर बाद पता चला कि हम गलत दिशा में बढ़ रहे थे। सबने मिलकर चालक को झिड़की लगायी लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था! बस को मोड़ा गया और स्थानीय बाशिंदों से पूछते-पूछते हम अपनी मंजिल की ओर बढ़े। करीब 2 घंटे के बाद हम उत्तराखंड की सीमा में प्रवेश कर चुके थे। हमारा पहला पड़ाव था ऊधम सिंह नगर जनपद स्थित नानकमत्ता पीपल साहिब गुरुद्वारा। सुबह 11 बजे हम वहाँ पहुँचे। सबने वहाँ मत्था टेका और लंगर छका। हमें आज ही श्री रीठा साहिब के लिए निकलना था। लेकिन अब काफी देर हो चुकी थी और गुरदीप मैम से पता चला कि वहाँ का मौसम भी खराब है, लगातार बारिश हो रही है। ऐसे मौसम में पहाड़ी इलाकों में यात्रा करना खतरे से खाली नहीं। अंत में मैम ने कुशल नेतृत्त्व का परिचय देते हुए आज वहीं रुकने का निर्णय लिया। फ्रेश होने के बाद सबने स्थानीय जगहों को देखने का मन बनाया। सबकी रजामंदी के बाद करीब 2 बजे सब श्री बावली साहिब देखने चले। कहते हैं कि यहाँ गंगा की धारा को मोड़कर लाया गया है। वहाँ के पावन जल से आचमन करने के बाद कुछ दोस्त अठखेलियाँ करती लहरों के साथ फोटोग्राफी करवाने लगे। एक सामूहिक फोटोग्राफ भी लिया गया। प्रथम वर्ष की छात्रा एवं कुशल फोटोग्राफर दीक्षिता ने सबको अपने कैमरे में कैद किया। हमें पता चला कि हमारे पड़ोसी देश नेपाल की सीमा भी वहाँ से तकरीबन 37-38 किमी. की दूरी पर ही है। आनन-फानन में सबने वहाँ घूमने का भी मन बना लिया। 1 घंटे की यात्रा के बाद हम नेपाल की सीमा पर भी पहुँचे और एक अन्य देश से भी सबका प्रथम साक्षात्कार हुआ। सब वहाँ ज्यादा-से-ज्यादा देर रुकना चाहते थे। लेकिन समय की कमी के कारण सब विवश थे। अचानक हमें अपने ऊपर गिरती सर्द बूँदों का अहसास हुआ और जब तक हम भागकर बस तक पहुँचते बारिश तेज रूप अख्तियार कर चुकी थी। खैर, हम बचते-बचाते अपने ठिकाने पर पहुँचे। लगातार 10 घंटे की यात्रा की थकान हमपर तारी थी और डिनर करते ही सब अपने-अपने कमरे में बंद हो गए। अगली सुबह हमें रीठा साहिब के लिए निकलना था। सुबह 4 गाड़ियाँ मँगवायी गयी और हम सब रीठा साहिब के लिए निकल पड़े। गाड़ियाँ तेजी से अपने पथ को नाप रही थीं और हम धीरे-धीरे वादियों की आगोश में बढ़ रहे थे। रास्ते में कई जगह गन्ने की पेराई हो रही थी और ताजे गुड़ से उठती सोंधी महक हमें ललचा रही थी। मैदानी इलाका अब खत्म हो गया और हम ऊँचाइयाँ छू रहे थे। मैंने मन-ही-मन वाहे गुरुजी का सुमिरन किया। पहाड़ी प्रदेशों की यात्रा कमजोर दिलवालों को कुछ क्षण के लिए दहला देती है। धीरे-धीरे मेरा भी डर खत्म होने लगा और मैं प्रकृति के शानदार नजारों का लुत्फ लेने लगा। कभी चढ़ाई-कभी ढलान, कभी गहरी खाई तो कभी नीचे कलकल कर बहती पहाड़ी नदी। इन रास्तों पर सफर करना ही असली जिंदगी को समझना है। कितना शांत वातावरण था, चिड़ियों की चहचहाहटों में भी नीरवता थी। पीठ पर बस्ता लादे स्कूल जाते गोरे-गोरे बच्चे, जिनके गाल कश्मीरी सेब की मानिंद लाल थे, हमें देखकर हाथ हिलाते। घरों के बाहर गिलास में चाय पीते बुजुर्ग, सर पर लकड़ियों का गट्ठर लादे जाती महिलाएँ, कितने खुश थे सब अपनी जिंदगी से। वहाँ कोई भी हमारी तरह यांत्रिक जिंदगी नहीं झेल रहा था। धीरे-धीरे सूर्य की किरणों ने अपना अपना दायरा बढ़ाना शुरु किया। चीड़ के पेड़ों पर छितराती रोशनी वादियों को स्वर्णिम आभा प्रदान कर रही थी। सच में, विधाता ने प्रकृति के कैनवास को अपने विविध रंगों से सजाया है, जिसे हम मानव अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण बदरंग करते जा रहे हैं। एक जगह हमारी गाड़ी रुकी, सब चाय-नाश्ते के लिए उतरे। दूर कहीं से बाँसुरी की मधुर आवाज आ रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोई प्रेमी इस निर्जन में अपनी खोई प्रेमिका को आर्त् स्वर में पुकार रहा हो। मैं इस धुन में खो-सा गया था कि अचानक मेरे मित्र दीपक ने मुझे झकझोरा। वो इन दिलकश नजारों के साथ सेल्फी लेना चाहते थे। कैमरे में कैद होकर एक बार फिर सब अपनी मंजिल की तरफ रवाना हुए। हम 6 घंटों से लगातार बढ़े जा रहे थे लेकिन किसी के चेहरे पर थकान की शिकन तक न थी। चीड़ के पेड़ों से निकलती खुश्बू हमें मदहोश कर रही थी। अचानक एक जगह गाड़ी रुकी और वहाँ पत्थर से बने प्रवेश-द्वार पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखे ये शब्द – “श्री रीठा साहिब में आपका स्वागत है” ने हमारे दिल को सुकूँ पहुँचाया। गुरुद्वारा श्री नानकमत्ता साहिब से श्री रीठा साहिब खटीमा, टनकपुर, चम्पावत, लोहाघाट, धूनाघाट होते हुए हम लगातार 7 घंटे की यात्रा के बाद पहुंचे। गुरुद्वारे का केसरिया पताका दूर से ही लहलहाता नजर आ रहा था। वाह! कितनी रमणीक और शांत जगह थी। चारों तरफ से दूर-दूर तक पहाड़ ही पहाड़। ऐसा लग रहा था मानो प्रकृति ने श्री रीठा साहिब को अपनी गोद में जगह दी हो। कहते हैं यहाँ के रीठे गुरु महाराज की कृपादृष्टि से अत्यंत मीठे हो गए थे। इसलिए इस पावन तीर्थ का नाम रीठा साहिब पड़ा। गाड़ी से उतरकर हमने सर्वप्रथम मत्था टेका और लंगर छका। फिर दौड़ पड़े हम और दीपक प्रकृति की आगोश में समाने। गुरुद्वारे के पीछे दो नदियों “लतिया और रतिया” का संगम विहंगम नजारा पेश कर रही थी। कुछ देर बाद गुरदीप मैम, गिल सर एवं हमारे अन्य मित्र भी वहाँ पहुँचे। गिल सर अपने चिरपरिचित भाव-भंगिमाओं के साथ फोटोग्राफी करवा रहे थे। कुछ ही देर में सूरज ढला और हल्का धुंधलका-सा छा गया। हम सब गुरुद्वारे लौट गए। फिर सबने साथ में लंगर किया और अपने-अपने कमरे की तरफ चल दिए। लेकिन किसी की आँखों में नींद कहाँ, वादियों के अद्भुत नजारे सबकी आँखों के सामने सिनेमा की तरह घूम रहे थे। कुछ ही देर में कुनकुनी-सी ठंड महसूस हुई और मैं कंबल के नीचे सरक गया। बगल में सोए मित्र दीपक तो अपनी खुशियों को फेसबुक और व्हाट्सएप के जरिए सबसे साझा करने में लगे थे। सुबह हमें यहाँ से निकलना था। अगली सुबह हमारी जिंदगी में एक और खूबसूरत सुबह लेकर आयी। पहाड़ों पर पड़ती सूर्य की लालिमा, चारों तरफ से उठती चहचहाहटें, गुरुद्वारे में मधुर लय में होते गुरुकीर्त्तन ने हमें दृश्य और श्रव्य हर तरह से मंत्रमुग्ध कर दिया। इस जगह को छोड़ कर जाने का मन शायद ही किसी को हो, पर हमें तो लौटना ही था। सबने बारी-बारी से जाकर मत्था टेका और जत्थेदार से मीठे रीठे का प्रसाद ग्रहण किया। बुझे मन से सब गाड़ी में बैठे और यादों को संजोते हुए नानकमत्ता के लिए रवाना हुए। नानकमत्ता में करीब 1 घंटा रुकने के बाद हम सब दिल्ली के लिए निकल पड़े। खुशी थी कि हमने स्वर्ग को काफी करीब से महसूस किया, दुख था कि हमारा स्वर्ग पीछे छूटता जा रहा था। अगली सुबह हमारी दिल्ली में हुई और हम पत्थरों से निकलकर मनुष्य-रूपी पत्थरों के बीच आ गए। ये यात्रा मेरी जिंदगी-रूपी किताब के सुनहरे पन्नों में से एक रहेगी। गुरुजी आपके बुलावे का फिर से इंतजार रहेगा।जो बोले सो निहाल
सत् श्री अकाल
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