Monday, 15 June 2015

अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करते आदिवासी..

शक्ति मिश्र
दिल्ली की चका-चौंध से दूर रायपुर, छत्तीसगढ़ का पुरखौती मुक्तांगन जहाँ  सांस्कृतिक कार्यशाला सभी दिल में अजीब सी कसक पैदा कर रही थी.  पुरखौती के रस्ते में तेज़ धूप थी,  टेम्पों की सवारी हमें मुक्ति का एहसास दिला रही थी.  छतीसगढ़ की संस्कृति, कला, आदिवासी नृत्य, अनजान गीत सभी अपने आप में लोकलुभावन और खूबसूरत रहे. यहाँ आकार पता चला कि वास्तव में जीवन क्या  है ? संस्था सी.जी.नेट स्वर  का उद्द्देश्य क्या है ? क्या आज भी ऐसे लोग यहाँ पर {भारत}  हैं जो अपने बुनियादी जरूरतों के लिए जूझ रहें हैं ?  आज भी ऐसे लोग हैं जिनके पास पानी, बिजली, सड़कें जैसे विकास के तमाम भौतिक साधनों से वंचित हैं. इन मूलभूत जरूरतों के लिए आज भी लोग संघर्ष कर रहे हैं इसे मुख्यधारा कि मीडिया कोई जगह नहीं देती है.  सी.जी.नेट स्वर  इन समस्याओं को हल करने की कोशिश करता है जिससे आम आदिवासी जनता के जीवन में खुशहाली आएसी.जी.नेट स्वर  का जो उद्देश्य हैं वह हर व्यक्ति को बहुत ही प्रभावित करता है.  जो मुझे यहाँ 50 दिन रुकने के लिए मजबूर कर दिया. अब इसे पढ़ने वालों को भी मजबूर शब्द का प्रयोग बड़ी ही गहराई से सोचने के लिए मजबूर करेगा. मुझे लगता है और सत्य तथा मानवता भी यही है कि हर उस व्यक्ति को उन दबे-कुचले या कह लें कि विलुप्त होने कि अवस्था वाले उन आदिवासियों के समस्याओं को जरुर हल करने की कोशिश करना चाहिए. जो इस समाज से अपनी अस्मिता के लिए लड़ रहे हैं. भारत में ऐसे ना जाने कितने आदिवासी,  दलित,  पिछड़ी जाति के लोग हैं जो आज भी अपनी पहचान धीरे-धीरे करके खोते जा रहे हैं.  उनके संघर्ष को आज सरकार ने आनिश्चित कालीन संघर्ष बना दिया है. जैसे छतीसगढ़ के महासमूद जिले के कमार जनजाति के लोग दो सालों से जिला अधिकारी कार्यालय के बाहर धरने पर बैठे हैं  और आज तक इसकी खबर हमारी पूंजीवादी मीडिया के नज़रों से दूर है. सरकार की भी बेहोशी की हालत में होने के कारण ऐसी ना जाने कितनी जाति-जनजाति के लोग रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ऐसे आपको हजारों उदाहरण मिल जायेंगे जहाँ छोटी-छोटी समस्याओं से ऊब कर व्यक्ति नक्सली या सरकार विरोधी बनने के लिए मजबूर हो रहा है. सरकार बांध बनाने के नाम पर, स्मार्ट सिटी के नाम के नाम पर, विकास के नाम पर झूठे वादे कर के  जनता का गला काट रही है. मेट्रोपोलिटन सिटी में रहने वाले पत्रकारों नेताओं और छात्रों को भी ऐसा लगेगा कि मुझे सरकार के लिये यह शब्द प्रयोग नहीं करना चाहिए था. पर शायद उन्हें इस बात कि जानकारी नहीं है कि आज भी ऐसे लोग इस देश में हैं जो आज दलितों से भी पिछड़े हैं जिनके साथ आज सरकार भी जानवरों जैसा व्यवहार कर रही है. जहाँ आज आजादी के 69 साल बाद भी पानी पीने का साधन नहीं है. दो किलोमीटर दूर पानी भरने जाने का दर्द अब तो वही समझ सकता है जो इससे जूझ रहा है. गावों में बिजली नहीं है ना ही कैरोसिन की व्यवस्था, लोग कैरोसिन के लिए भी 5 किलोमीटर दूर जाते हैं. सड़कें नहीं है, शायद यह समस्यायें शहरी और स्मार्ट सिटी की बात करने वालों के अनुसार छोटीं होंगी क्योंकि मैंने भी पैनल परिचर्चा में बहुत सुना है उसमें नेताओं और उद्घोषकों के लिए ये समस्यायें एक घंटे की परिचर्चा के लिये ही बनी रहतीं है. शायद उनके लिये ये सब बस एक विषय है जिस पर एक घंटे का समय गप्प में व्यतीत हो सके. पर जब जमीनी आधार पर उनकी समस्याओं का सामना उन वातानुकूलित नेताओं से होगा तो शायद उन्हें ये समस्यायें छोटी नहीं लगेंगी. हमें यहाँ आने पर ही पता चला कि हम दिल्ली में एक अधूरे भारत को देख रहे हैं मौलिक भारत तो यहाँ बस्तर और दंतेवाड़ा जैसे जिलें हैं. जहाँ आज भी लोग अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आज सी.जी.नेट स्वर http://cgnetswara.org/ जिन सारी समस्याओं को समाज के सामने, सरकार के सामने लाने का काम कर रहा है. अगर इन सारी समस्याओं का समाधान सरकार सोचती तो शायद आज इतना संघर्ष करने कि जरूरत नहीं.
यहाँ संस्कृति की धरोंहरों से सुसज्जित "पुरखौती मुक्तांगन" में रहने और सात दिन (दिन 24 मई 2015-30मई2015) के "सांस्कृतिक कार्यशाला" में भागीदारी बहुत ही अनूठी और क्रांतिकारी रही. गावों की समयस्याओं को नाटक के माध्यम से लोगों को जागरूक करने कि कला भी बड़ी ही रोचक और आन्दोलनकारी रही. 

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