संतोष कुमार
मानव सभ्यता आज जिस मुकाम पर है उसका मूल कारण यह है कि मनुष्य कभी अपनी सफलताओं से संतुष्ट नहीं होता. वह हमेशा कुछ नया, और पहले से उन्नत हासिल करना चाहता है. क्योंकि जो समाज समय के साथ नहीं बदलता उसके विकास के मार्ग अवरुद्ध हो जाते हैं और अंततः उसका सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक पतन हो जाता है. विश्व के इतिहास ने इसे कई मर्तबा सही साबित किया है. उदाहरण के तौर पर विश्व का इतिहास नारीवादी आंदोलनों तथा नस्लभेदी आंदोलनों से भरा हुआ है. लेकिन कालांतर में यह आंदोलन कम हुए, क्योंकि इसका यथासंभव एवं यथासमय इसका उपचार किया गया. उन्नीसवीं सदी के अंत तक यूरोप तथा अमेरिका के चुनावों में समानता, महिलाओं के अधिकार और नस्लभेदी नीति चुनाव के प्रमुख मुद्दे होते थे. आज इक्कीसवीं सदी में समलैंगिक कानून, परमाणु समझौता, रोजगार और पारदर्शिता जैसे मुद्दे चुनाव की दशा और दिशा तय कर रहे हैं. भारत में भी बदलते समय के साथ चुनावी नारे बदलते गये. ‘जय जवान, जय किसान’, ‘गरीबी हटाओ’, ‘इंडिया शायनिंग’, का नारा लगाते हुए हम ‘सबका साथ, सबका विकास’ तक की बात करने लगे हैं. यह एक अलग चर्चा का विषय है कि ये केवल चुनावी जुमले भर रहे हैं या राजनीतिक पार्टियों की वास्तविक विचारधाराओं से इनका कुछ अभिप्राय भी है. इसी वर्ष संपन्न हुए दिल्ली विधान सभा चुनाव में चुनावी मुद्दा बिजली, पानी से कई कदम आगे चलकर वाई-फाई और सी.सी.टी.वी. तक आ पहुंचा. वहीं जम्मू कश्मीर, महाराष्ट्र और हरियाणा में विकास के नाम चुनाव लड़े गये. अब सवाल यह उठता है कि आजादी के छः दशक बाद भी बिहार में चुनावी राजनीति का मुद्दा ‘जाति’ क्यों बना हुआ है? क्या राजनीतिक पार्टियाँ बिहार में कोई नया वादा नहीं करना चाहती? या बिहार के लोग सूक्ष्मदर्शिता के शिकार हो चुके हैं ?
बिहार की चुनावी रैलियों में भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, कालिदास, गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली, चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, और सम्राट अशोक की कर्मस्थली तथा नालंदा विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास का पाठ कराकर वहां के वाशिंदों को सम्मोहित कर दिया जाता है. वहां के लोग यह भूल जाते हैं की अपनी गलतियों से सीख कर ही ‘अशोक’, ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ बन पाए. चुनावी राजनीति ने केवल ‘जातिगत पहचान’ को मजबूती प्रदान करने काम किया है. प्रसिद्ध सिद्धांतकार क्रिस्टोफे जेफरेलॉट लिखते हैं कि “1990 के बाद के उत्तरी भारत की राजनीति में निचली जातियों का उभार हुआ और इस रूप में यहाँ ‘मौन क्रांति’ या ‘साइलेंट रिवोल्यूशन’ हुआ है” लेकिन इस क्रांति ने लालू और नितीश के अलावे बिहार को क्या दिया ? आज भी एक बड़ा समुदाय मूलभूत सुविधाओं से वंचित है. आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दे सुरसा के सामान मुंह बाए खड़े हैं. चुनाव लड़ने वाली सभी पार्टियाँ पलायन रोकने का वादा करती है लेकिन अभी तक यह सपना साकार नहीं हो पाया है. 2009-10 में हुए एक शोध के आंकड़ों के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग 44 लाख लोग आजीविका के तलाश में देश के दूसरे हिस्सों में पलायन कर लेते हैं. प्रति वर्ष लाखों छात्र को उच्च शिक्षा के लिए सूबे से बाहर निकलना पड़ता है. लालू के 15 वर्ष के शासन को ‘जंगल राज’ की संज्ञा देने वाले सुशासन बाबू ने अपनी राजनीति को दुबारा चमकाने के लिए बिहार के अतीत और भविष्य से समझौता कर लिया है. सम्राट अशोक, जय प्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, वीर कुंवर सिंह, रामधारी सिंह दिनकर तथा बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जैसे इतिहास पुरुषों की आरती शुरू हो गई है. मतदान के बक्से का मुंह खुलने के साथ किसके मुंह बंद हो जायेंगे ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा. आमतौर पर यह माना जाता है कि बिहार की राजनीति देश की राजनीति को प्रभावित करती है. इस बार भी बिसात कुछ इसी तरह की है. बिहार की जनता को यह बात समझनी होगी की चुनाव से नेताओं के नहीं बल्कि वहां की जनता का भविष्य का फैसला होता है. ऐसे में यह देखने वाली बात होगी की बिहार की जनता क्या फैसला लेती है. वह चुनाव से एक रात पहले बंटने वाली बोतल को चुनती है या बिहार की खोयी हुई अस्मिता को. वह बिहार के स्याह अतीत को चुनती है या सुनहरे भविष्य को.
बिहार की चुनावी रैलियों में भगवान बुद्ध, भगवान महावीर, कालिदास, गुरु गोविन्द सिंह की जन्मस्थली, चाणक्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, और सम्राट अशोक की कर्मस्थली तथा नालंदा विश्वविद्यालय के गौरवशाली इतिहास का पाठ कराकर वहां के वाशिंदों को सम्मोहित कर दिया जाता है. वहां के लोग यह भूल जाते हैं की अपनी गलतियों से सीख कर ही ‘अशोक’, ‘चक्रवर्ती सम्राट अशोक’ बन पाए. चुनावी राजनीति ने केवल ‘जातिगत पहचान’ को मजबूती प्रदान करने काम किया है. प्रसिद्ध सिद्धांतकार क्रिस्टोफे जेफरेलॉट लिखते हैं कि “1990 के बाद के उत्तरी भारत की राजनीति में निचली जातियों का उभार हुआ और इस रूप में यहाँ ‘मौन क्रांति’ या ‘साइलेंट रिवोल्यूशन’ हुआ है” लेकिन इस क्रांति ने लालू और नितीश के अलावे बिहार को क्या दिया ? आज भी एक बड़ा समुदाय मूलभूत सुविधाओं से वंचित है. आज भी शिक्षा, स्वास्थ्य, सिंचाई, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दे सुरसा के सामान मुंह बाए खड़े हैं. चुनाव लड़ने वाली सभी पार्टियाँ पलायन रोकने का वादा करती है लेकिन अभी तक यह सपना साकार नहीं हो पाया है. 2009-10 में हुए एक शोध के आंकड़ों के मुताबिक प्रतिवर्ष लगभग 44 लाख लोग आजीविका के तलाश में देश के दूसरे हिस्सों में पलायन कर लेते हैं. प्रति वर्ष लाखों छात्र को उच्च शिक्षा के लिए सूबे से बाहर निकलना पड़ता है. लालू के 15 वर्ष के शासन को ‘जंगल राज’ की संज्ञा देने वाले सुशासन बाबू ने अपनी राजनीति को दुबारा चमकाने के लिए बिहार के अतीत और भविष्य से समझौता कर लिया है. सम्राट अशोक, जय प्रकाश नारायण, कर्पूरी ठाकुर, वीर कुंवर सिंह, रामधारी सिंह दिनकर तथा बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर जैसे इतिहास पुरुषों की आरती शुरू हो गई है. मतदान के बक्से का मुंह खुलने के साथ किसके मुंह बंद हो जायेंगे ये तो आने वाला वक़्त ही बतायेगा. आमतौर पर यह माना जाता है कि बिहार की राजनीति देश की राजनीति को प्रभावित करती है. इस बार भी बिसात कुछ इसी तरह की है. बिहार की जनता को यह बात समझनी होगी की चुनाव से नेताओं के नहीं बल्कि वहां की जनता का भविष्य का फैसला होता है. ऐसे में यह देखने वाली बात होगी की बिहार की जनता क्या फैसला लेती है. वह चुनाव से एक रात पहले बंटने वाली बोतल को चुनती है या बिहार की खोयी हुई अस्मिता को. वह बिहार के स्याह अतीत को चुनती है या सुनहरे भविष्य को.
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