कुंदन कुमार
25 जून 1975 को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब देश में आपातकाल की घोषणा की तो भारत कि जनता को अपने कान पे यकीन नहीं हुआ. कल तक आजादी में सांस ले रहे लोगों को सरकार अब गुलामी की जंजीर में जकड़ने की तैयारी कर चुकी थी. गौरतलब है कि तत्कालीन सरकार ने लोकतंत्र के सारे नियमों को ताक पर रखकर रातों-रात लोकतंत्र की हत्या कर दी थी. कल तक जो सरकार जनता की हितैषी थी अब वही सरकार जनता की सबसे बड़ी दुशमन बन चुकी थी. दरअसल तत्कालीन सरकार अब मनमाना रवैया अख्तियार कर विपक्ष और सरकार के खिलाफ आवाज उठाने वाले तमाम लोगों को जबरन जेल में ठूंसने लगी थी. आजादी के बाद पहली बार लोगों ने पुलिसिया चेहरे का वो क्रूर रुप देखा जिसे लोग बुरे सपने की तरह भूला देना चाहते थे. ऐसे में एक बड़ा सवाल यह उठता है कि आपातकाल के चार दशक बाद क्या फिर से आपातकाल जैसी स्थिति बन सकती है. आज वर्तमान समय में लोकतंत्र के चारों स्तंभ में दरार पड़ने लगी है. कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका तो पहले से ही सवालों के घेरे में है. वही लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया आज कटघरे में खड़ा है. वहीँ दूसरी तरफ राजनीति में जिस तरह व्यक्तिवाद हावी हो रहा है वह लोकतंत्र को दीमक की तरह धीरे-धीरे खोखला कर रहा है. इसके साथ ही साथ जिस तरह सरकारें अपने निजी हित साधने एवं अवाम के अधिकारों पर अंकुश लगाने के लिए लगातार संविधान में फेर बदल कर रही है उससे लोकतंत्र को नुकसान तो पहुंच ही रहा है, इसके अलावा इस बात की भी संभावना है कि आने वाले समय अगर हिंदुस्तानी अवाम को अगर आपातकाल जैसे हालात का सामाना करना पड़ता है तो इसमें कोई अतिशोयक्ति नहीं होगी. गौरतलब है कि लोकतंत्र के सबसे बड़े प्रहरी मीडिया पर आज बाजारवाद हावी है वे अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा नहीं पा रहा है. ऐसे स्थिति में जनता को अगर आपातकाल जैसे हालात से बचना है तो उन्हें पहले के मुकाबले ज्यादा सजग रहने की आवशयकता है.
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