कभी-कभी व्यक्ति बहुत बातें अपने अहं की तुष्टि के लिए भी करता है। अपने वजूद में शायद कहीं कुछ जैसे बह सा गया है। वे अपनी बातों में प्रशंसा की चाशनी लपेेटते रहते हैं। बातें बढती तब हैं जब हम बीती बातों में उलझते हैं। अपने साथ अपने संबंधियो के व्यवहार को याद करना भी बातों की ललक को बढावा देना है।
कभी-कभी हम अपनी जिम्मेदारी से यहाँ-वहाँ सरकते हैं या काम से पल्ला छुड़ाने के रास्ते ढूंढते हैं। तब लच्छेदार बातों से शायद अपने आलसीपन को सहलातें हैं। बातों का नशा भी तो एक बीमारी से कम नहीँ। निरंतर बातें और उन बातों का नतीजा क्या होगा वो नशे जैसा ही तो है। बातों का भूत जब चिपटता है तो वह बीमार करके ही छोड़ता हैं। व्यक्ति जब अपनी आत्मिक शक्ति खोने लगता है तब भी व्यक्ति बातों के संक्रमण से अछूता नहीं रह पाता। स्वभाव में नकारात्मकता भी बातों की गलियों में भटकने जैसा है। दूसरों की कमी कमजोरी तो बातों में जैसे चार चाँद लगा देती है। इस बीमारी में निंदा तो मीठे-मीठे दर्द का अहसास कराती है।
आज के जादुई तंत्र-मंत्र-यंत्र तो सबको पता ही हैँ... मोबाइल फोन, फेसबुक, गूगल टाक, इंटरनेट और वॉट्स एप ये संगी साथी साथ हों तो बातों के कीटाणु फैलते देर नहीं लगती। बातों का चक्रव्यूह लू के थपेडों जैसा हमें आहत करता रहता है। ज्यादा बातें बात-चीत के आनंद को कम कर देती हैं। विचार-विमर्श हो या फिर चाटुकारी या गपशप ये तो संग साथ के स्वाद है पर बहुत बातें तो अपच का काम करती है । जब कभी बच्चों की कक्षा का चक्कर लगाती हूँ तो सब तरफ बतियाने की ही हवा का अहसास होता है। ज्यादा बातें भी बच्चों की एकाग्रता भंग करने का कारण होती हैं। कक्षा आदि में बातें जहाँ बालमन के मेल मिलाप में सामाजिकता का रंग भरती हैं वहीं ज्यादा बातें बच्चों को कक्षा में बातुनी भी बना देती है। यह सच है कि चुलबुली बातें बचपन की अमूल्य सौगात होती हैं पर बातें ही बातें बच्चों को यहाँ वहाँ डांट भी खिलाती हैँ। शायद इसका कारण भी हम बड़े ही हैं। बड़े भी जब दिन रात बातों की चक्करी चलाते हैं तो बच्चे भी इस चक्करी में झूलते हैं। किशोरा अवस्था की भी बातें मौज मस्ती के वसंत जैसी होती हैं। यह उम्र ही सच पूछो तो बातों पर खुल कर ठहाके लगाने की कला जानती है पर समस्या तब है जब यही बातें घुमावदार रास्तों की तरह जिंदगी को उलझा देती हैं। कहते हैं साठ वर्ष के बाद वान प्रस्थ अवस्था को स्वीकार करो। काश वान प्रस्थ का भाव वाणी से परे हो जाना ही होता। जितना कम बोलेंगे उतने ही कम सुझाव, उतने ही अनुभवों के किस्से कम छेडेंगे। कम बात वालों के अनुभव और सुझाव में बडा वजन होता है। ऐसे जीवन के अभ्यास से हम मानसिक तनाव की गिरफ्त से बच सकते हैं। जीवन रहते मधुर वाणी की तान से अपनी स्वर लहरी जोड़ ले तो बातों की गूंज व्यर्थ नहीं समर्थ बन जाएगी। पर यह बीमारी तो हमें अपनों से दूर ले जाती है।
अब इस बीमारी से निज़ात भी पाना जरूरी है । सबसे पहले अपनी दिनचर्या पर जांच रखना जरुरी है। सारा दिन क्या-क्या करना है। अपने लिए योग, आसन, सैर, ध्यान, अपने शौक अथवा पठन-पाठन ये सब काम हम अपनी खुशी से करते या नहीं। फोन की बातों से बचने का अभ्यास भी आवश्यक है। मन से सकारात्मक बातचीत की आदत भी इस बीमारी से राहत पाने का तरीका हो सकता है। बीती को बिंदु लगाना और न काहु से दोस्ती न काहु से बैर का मंत्र समझने का अभ्यास। सच्चे मित्र एक दूसरे को व्यर्थं की वार्तालाप से किनारा करना सिखाते है ।
जहाँ नकारात्मक बातें और अति बातूनी होना हानिकारक होता है वहीँ सकारात्मक बातें संजीवनी के समान होती है। वृद्धों की बातचीत उनमें ताज़गी भरती है। जब पुत्र अपने वृद्ध पिता के साथ बैठकर बातें करता है तो पिता के लिए वह सकून देने वाला होता है।
बातें करना, कुछ तुमने कही, कुछ मैने सुनी, अपने दिल को हलका करना हो तो हाले दिल बयां करना किसी भी हाल में अच्छा ही है। अपनी खुशी की अभिव्यक्ति भी बातों की शहनाई से ही गूंजती है पर अति बातों का चस्का तो बदहाल ही करता है। कई बार नासमझी भी बातों के पासे खेलने से नहीं चूकती।
होगी जब अपनों से अपनों की बात
जब बीती बातों को लगेगी बिंदी
सकारात्मक सोच से होगी मुलाकात
तब बातों की बीमारी से मिलेगी निज़ात !!
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