Tuesday, 11 August 2015

दहेज

आएशा खान की एक  कविता.
आखों में थी कुछ बनने की चाह
मगर काँटों भरी थी यह राह
माँ-बाप ने मुझको समझा बोझ
लिया एक लड़का मेरे लिए खोज
फिर पैसों पर बात जा अटकी
और मैं इसी अधर में लटकी।
जीवन हो गया था मेरा नीरस
इस पर ना था मेरा कोई बस
दहेज देने पर पक्की हुई बात
फिर आई शादी की रात ।
शादी में भी हुआ बवाल
आखिर बड़ी गाड़ी का था सवाल ।
माँ-बाप मेरे बहुत गिड़गिड़ाए
फिर भी उनको दहेज ना भाए
किसी तरह हुई फिर मेरी शादी
अत्याचारों और तानों से हुई मैं आधी ।
घर वालों को जब यह बतलाया
सब लोगों ने मुँह लटकाया ।
साथ ना दिया किसी ने भी मेरा 
उलटा सबने मुझको ही घेरा
किया तब मैंने भी खुद से वादा
अब ना झेलूँगी यह सब और ज्यादा
लिया मैंने कानून का सहारा
अब ना मैं अबला ना ही सर्वहारा ।
हिम्मत से लिया मैंनें अपना काम
और ना मिटने दिया अपना नाम !

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