कृष्णा द्विवेदी
हिंदी दिवस आने वाला है। सच पूछो तो कभी याद नहीं रहता. रोज हिंदी में लिखते-पढ़ते हिंदी इस कदर दिलोदिमाग में रच बस गयी है कि इससे अलग अपना कोई अस्तित्त्व नज़र नहीं आता. प्यार तो हिंदी से बचपन से ही रहा है, पर पिछले दो-तीन हफ्तों से लिखना शुरू किया है, तो हिंदी से लगाव दिनोंदिन बढ़ता ही जा रहा है। अपना तो हर दिन हिंदी दिवस ही है। पर अब चूँकि आधिकारिक हिंदी दिवस आने वाला है तो कुछ विशेष मुद्दों पर बात करना चाहूँगा. बहुत-सी बातें हैं जो बहुत अजीब लगती हैं. कल की ही बात है, अंग्रेजी माध्यम के कुछ बच्चों से हिंदी में गिनती के बारे में पूछा, तो बड़े फख्र और गर्व से जवाब मिला कि बस 20 तक आती है। आगे सीखने के बारे में कहा तो ऐसे नाक भौहें सिकोड़ी जैसे उनकी शान पर बट्टा लगाने की बात कह दी हो।
'मात्र 30 दिनों में फर्राटेदार अंग्रेजी बोलिए’ इस तरह के विज्ञापन बोर्ड आज हर गली-मोहल्ले की शोभा बढ़ा रहे हैं। पैदा होते ही बच्चे को तुतला-तुतलाकर अंग्रेजी सिखाते माँ-बाप आज हर घर में देखे जा सकते हैं। खर-पतवार की तरह उग आये अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में हिंदी में बोले जाने पर दण्डित किया जाता है। अपने ही देश में अपनी ही भाषा में बात करने पर दंड लगाना! अंग्रेज चले गए पर अंग्रेजी मानसिकता से मुक्ति अब मिलती नज़र नहीं आती। एक और विचित्र बात, अधिकांश लोग जो अंग्रेजी वक्तव्य में कुशल होते हैं, वे अंग्रेजी ना जानने वालों को हेय दृष्टि से देखते हैं. शुद्ध हिंदी भाषा बोलने वालों का मजाक उड़ाया जाता है। इससे बुरी बात और क्या होगी कि एक विदेशी भाषा हमारे यहाँ विभाजक का कार्य कर रही है। यह एक प्रकार का नस्लभेद ही है जो समाज में भाषा के आधार पर दरार डाल रहा है।वैसे इन सबके लिए सरकारी नीतियाँ काफी हद तक जिम्मेदार है। अगर बिना किसी प्रतिबन्ध या मजबूरी के हमें अख़बारों या टीवी चैनल्स पर भाषा चुनने का अधिकार दिया जाए तो हममें से अधिकांश लोग अपनी मातृभाषा को ही चुनेंगे। फिर भी अंग्रेजी को विशेष दर्जा दिया जाता है। हिंदी दिल की भाषा तो बन गयी पर रोजगार की भाषा नहीं बन पायी। चीन, जर्मनी, जापान और दक्षिणी कोरिया जैसे कई देश हैं जिन्होंने अपनी स्वयं की भाषा के बल पर अपार सफलता हासिल की है। अंग्रेजी वहाँ सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है। पर भारत की सफलता तो अभी भी विदेशी भाषा पर टिकी हुई है। हमें अगर हिंदी को जिंदा रखना है, इसे जन-जनकी भाषा बनाना है तो इसे केवल साहित्य के दायरे से बाहर लाना होगा। हिंदी भाषा में सरल, सहज, बोधगामी, गुणवत्ता युक्त साहित्य जो ज्ञान का विशाल भंडार हो, उसकी जरुरत तो है ही, लेकिन साथ-साथ बहुत जरुरी है विज्ञान, दर्शन, समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि सभी विषयों पर भी अच्छी पठनीय सामग्री भी हो. क्योंकि सिर्फ साहित्य पर केन्द्रित भाषा समूचे राष्ट्र की भाषा नहीं बन सकती। उसका भविष्य अच्छा नहीं हो सकता. वह विकास की सीढ़ी नहीं बन सकती. बहुत जरुरी है हिंदी को रोजगार की भाषा बनाना. इसके लिए चिकित्सा, अभियांत्रिकी और रोजगार के सभी क्षेत्रों के पाठ्यक्रम हिंदी में होने चाहिए। अन्य भाषाओं का अध्ययन बिल्कुल गलत नहीं है, पर हमारी मूल शिक्षा प्रणाली और कार्य प्रणाली हिंदी आधारित होनी चाहिए।जो अंग्रेजी के शब्दों के हिंदी में लम्बे-चौड़े अर्थ निकाल कर हिंदी का मजाक उड़ाते फिरते हैं, उनसे यही कहूँगा कि जैसे हिंदी के कई शब्दों के अंग्रेजी में समानार्थक शब्द नहीं होते, वैसे ही हिंदी में भी हर अंग्रेजी शब्द का समानार्थक शब्द होना जरुरी नहीं है। वैसे भी हिंदी का दिल तो इतना बड़ा है कि उसमें सभी भाषाओँ के जरुरी शब्दों के लिए स्थान है। ऐसे में ये बेवजह का मजाक उड़ाना अपनी मातृभाषा का अपमान है. भावी पीढ़ियों पर इसका नकारात्मक असर ही पड़ना है.हिंदी तो सबसे सरल और सहज भाषा है, जिसे सीखना भी आसान है और व्यवहार में लाना भी आसान है। एक अंतर्राष्ट्रीय भाषा बनने के सारे गुण इसमें विद्यमान है। तो आईये हिंदी को हम अपने सपनों, अपने चिंतन, अपने प्रतिरोध, अपने समर्थन, अपने संपर्क, अपने पठन-पाठन और अपने रोजगार की भाषा बनाने की ओर कदम बढ़ाएँ।
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